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विहारचर्या सम्बन्धी विधि - नियम... 327
साम्भोगिक (एक गच्छवासी) मुनि के विहार संबंधी कृत्य
ओघनिर्युक्ति में कहा गया है कि यदि विहार करते हुए मुनि को अपने गच्छवासी (सांभोगिक) साधु मिल जाये तो सबसे पहले स्वयं के उपकरण आदि सांभोगिक (एक स्थान पर रुके हुए गच्छवासी साधु) के हाथ में देकर छोटे-बड़े के क्रम से वन्दना करें।
1. फिर आने का उद्देश्य स्पष्ट करें 2. दोनों परस्पर सुखपृच्छा करें 3. विहारस्थ मुनि विहार कर रहे हों तो स्थित मुनि पहुँचाने जाएं 4. यदि वहाँ रूग्ण मुनि हो तो स्वयं को सेवा के लिए प्रस्तुत करें और 5. यदि ग्लान के लिए औषध आदि की संयोजना करने वाला कोई न हो, तो स्वयं उसकी गवेषणा करें। तत्पश्चात उसकी विधि बतलाकर विहार करें | 38
गमनयोग में अपेक्षित सावधानियाँ
यह संसार अनन्तानन्त जीवों का पिण्ड है। इसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं बड़े से बड़े सभी प्रकार के जीव रहते हैं, अतः हमारी हलन चलन जैसी प्रवृत्तियों से जीव हिंसा की पूर्ण संभावना रहती है। इस प्रसंग में गौतम गणधर ने भगवान महावीर से प्रश्न किया है कि किसी भी प्रवृत्ति में जीव हिंसा होती है तब क्या करें? कैसे सोयें, कैसे बैठें, कैसे चलें, कैसे बोलें ? इसके प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा 'यतनापूर्वक चलो, यतनापूर्वक बैठो, यतनापूर्वक समस्त प्रवृत्ति करो इससे पापकर्म का बन्धन नहीं होगा । '
जो साधक यतनापूर्वक प्रवृत्ति करते हुए सभी प्राणियों को समान भाव से देखता है, उसके नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता और पूर्वकर्म नष्ट हो जाते हैं। श्रमण की प्रत्येक क्रिया उपयोगयुक्त होती है, अतः गमनक्रिया को भी गमनयोग कहा गया है। तदुपरान्त गमनक्रिया के समय निम्न सावधानियां आवश्यक हैं इसके परिणाम स्वरूप बन्धन रूप क्रिया निर्जराफल रूप बनती है | 39
विहार करते समय युग परिमाण भूमि को देखते हुए चलें। तृण, घास, बीज, आदि पर न चलें। सरजस्क पैरों से गोबर, कीचड़ आदि पर न चलें। धुंवर, वर्षा आदि गिरते समय न चलें। आंधी, महावात वायु, तेज हवादि के समय विहार न करें। बातचीत करते हुए, हँसते हुए, इधर-उधर झांकते हुए न चलें। हिलते हुए पत्थर, ईंट, तख्ते आदि पर पैर रखकर न चले। पाद विहार से श्रान्त हो जायें, तब भी सचित्त भूमि पर न बैठें, स्थान का प्रमार्जन किए बिना