Book Title: Jain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 387
________________ विहारचर्या सम्बन्धी विधि- नियम... 325 व्यवहारभाष्य के अनुसार यदि मुनि निम्नोक्त गुणों से सम्पन्न हों, तब भी किसी विशिष्ट प्रयोजन के उपस्थित होने पर दो साधु विहार कर सकते हैं | 36 1. कृतकरण - विहार में अभ्यस्त हों । 2. स्थविर - श्रुत और दीक्षा पर्याय से स्थविर हों । 3. सूत्रार्थ विशारद - सूत्रार्थ में निपुण हों । 4. श्रुतरहस्य - सूत्र के रहस्यों को अनेक बार सुना हुआ हों । 5. समर्थ - कदाचित मार्ग में किसी एक का अवसान हो जाये तो उसके मृत शरीर और समस्त उपधि को वहन करने में समर्थ हों । विहार में गीतार्थ मुनि के कर्तव्य जैन साहित्य का अध्ययन करने से यह सुस्पष्ट होता है कि विहार में गीतार्थ मुनि का होना परमावश्यक है। पद यात्रा के दौरान गीतार्थ श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन करते हैं। विहार करने वाले आबाल-वृद्ध मुनियों के संरक्षण का समग्र उत्तरदायित्व उन पर होता है। इस दृष्टि से विहार में चलने का एक क्रम भी निर्धारित किया गया है। बृहत्कल्प के भाष्यकार कहते हैं मार्ग में चलते समय सबसे आगे अगीतार्थ मुनि चलें, मध्य में समर्थ गीतार्थ चलें तथा पीछे गीतार्थ मुनि चलें। 37 मूलपाठ में अगीतार्थ मुनि के लिए - मृग परिषद् मुनि, समर्थ गीतार्थ के लिए - वृषभ मुनि, श्रेष्ठ गीतार्थ के लिए - सिंह परिषद् मुनि, इन शब्दों का प्रयोग किया गया है। यहाँ इन शास्त्रीय नामों का निर्देश करते हुए कुछ आवश्यक चर्चा करेंगे। कुछ आचार्यों का मत है - वृषभ मुनि सबसे पीछे चलें, क्योंकि अगीतार्थ - गीतार्थ या बाल-वृद्ध साधुओं में जो कोई परिश्रान्त हो जायें अथवा भूख-प्यास से पीड़ित हो जायें तो वे उनकी रक्षा कर सकते हैं। इसलिए वृषभ मुनि पीछे चलें अथवा बाल- बृद्ध मुनियों के आगे पीछे और पार्श्व में चलें। आचार्य के दोनों ओर नियमतः वृषभ मुनि चलने चाहिए। अगीतार्थ मुनियों के मध्य भी नियमत: एक वृषभ साधु चलना चाहिए। , मार्ग में वृषभ मुनि की आवश्यकता इन कारणों को लेकर स्वीकारी गयी है कि वे अपनी शक्ति को कभी छुपाते नहीं है । मृगपरिषद् या सिंहपरिषद् का

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