Book Title: Jain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 421
________________ स्थंडिल गमन सम्बन्धी विधि-नियम...359 उपयोगिता अधिक प्रतिभासित होती है। इससे जल प्रबन्धन, समय प्रबन्धन आदि हो सकता है। जैसे स्थंडिल भूमि के लिए दूर जाना हो तब मुनि आहार पर नियन्त्रण रखेगा और अधिक या गरिष्ठ आहार आदि नहीं करेगा, जिस कारण उसे बार-बार बाहर जाना पड़े तथा इससे उसके संयम, स्वाध्याय आदि में भी हानि नहीं होगी। स्थंडिल भूमि में जाने से एक लोटे पानी में काम हो सकता है वहीं शौचालय की सफाई आदि में एक बाल्टी से अधिक पानी चाहिए। वर्तमान में जल का दुरुपयोग एवं किल्लत को देखते हुए भविष्य की यह एक गहन समस्या हो सकती है। नव्ययुग की समस्याओं के समाधान में यदि स्थंडिल की उपयोगिता पर विचार किया जाए तो आज बन्द कमरों एवं विलायती शौचालयों आदि के उपयोग के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति गड़बड़ा गई है, क्योंकि बाहर के खुले वातावरण में जाने से मल क्रिया जितनी अच्छे से होती थी वह नहीं हो पाती तथा जो प्राकृतिक ऊर्जा वायुमण्डल से प्राप्त होती थी वह नहीं मिल पाती। कई बार नाली आदि जाम होने से जो वातावरण दूषित होता है वह कई रोगों की उत्पत्ति का कारण बनता है। बाहर जाने से इस समस्या का निवारण नि:सन्देह हो सकता है परन्तु उसमें विवेक रखना अत्यावश्यक है। स्थंडिल गमन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देहधारी प्राणियों के लिए मल-मूत्र आदि का विसर्जन अनिवार्य है। यह दैहिक अशुद्धि के विसर्जन की धार्मिक विधि है। श्रमणों के लिए स्थंडिल गमन की इस विधि के माध्यम से मुनि जीवन की कठोर चर्या का आदर्श उपस्थित होता है। दिन का तीसरा प्रहर मुनि के आहार-निहार का कहा गया है। इस शास्त्रीय नियम से मध्याह्न की तपतपती रेतीली या पथरीली सड़क पर नंगे पैर चलना और ऊपर से ग्रीष्म ताप को झेलना साधारण बात नहीं है। इस तरह की कठोर चर्या का पालन आत्मबली व्यक्ति ही कर सकता है। इस प्रकार स्थंडिल गमन संयम साधना का एक विशिष्ट पक्ष है। ___यदि इस विधि की प्राचीनता के सम्बन्ध में मनन किया जाए तो ज्ञात होता है कि आचारांग,22 सूत्रकृतांग,23 ज्ञाताधर्मकथा24 आदि मूलागमों में 'थंडिल' शब्द का उल्लेख स्पष्टत: है। इससे सूचित होता है कि स्थंडिल गमन एक आगम सम्मत क्रिया है। ध्यातव्य है कि इन ग्रन्थों में 'स्थंडिल' शब्द का प्रयोग अशुद्ध आहार

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