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332...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन चर्या का निर्दोष पालन करना दुर्भर होता जा रहा है। जैन श्रावक गिनती मात्र रह गये हैं। फिलहाल साधु-साध्वी के विचरण के लिए राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मालवा, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि प्रान्त अनुकूल कहे जा सकते हैं। मूलत: जहाँ संयमगणों की वृद्धि हो एवं जिनशासन की प्रभावना हो वहीं विचरण करना चाहिए। कालगत प्रभाव से आर्य-अनार्य स्वभावी और अनार्य-आर्य स्वभावी बन सकते हैं। विहार हेतु कुछ निषिद्ध स्थान
जैन साहित्य में विहार हेतु कुछ निषिद्ध स्थान भी बतलाये गये हैं, जहाँ मुनि को विचरण नहीं करना चाहिए।50 बृहत्कल्पनियुक्ति के अनुसार वे निषिद्ध स्थान निम्नोक्त हैं
1. जिन राज्यों में रहने वाले लोगों में पूर्वजों से परम्परागत वैर चल रहा हो। 2. जिन दो राज्यों में परस्पर वैर उत्पन्न हो गया हो। 3. जहाँ के राजादि लोग दूसरे राज्यों के ग्राम-नगरादि को जलाने की योजना
बनाते हों। 4. जहाँ के मंत्री, सेनापति आदि प्रधान परुष राजा से विरक्त हो रहे हों, उसे
पदच्युत करने के षडयन्त्र में संलग्न हों। 5. जहाँ का राजा मर गया हो या हटा दिया गया हो। 6. जहाँ पर दो राजाओं के राज्य में परस्पर गमनागमन प्रतिषिद्ध हो।51 ___ इस प्रकार के अराजक या विरुद्धराज्य में विचरण करने से अधिकारी वर्ग साधु को चोर, गुप्तचर या षड्यन्त्रकारी जानकर वध, बन्धन आदि नाना प्रकार के दु:ख दे सकते हैं। इससे जिनेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन भी होता है। यदि विशेष कारणों से उक्त प्रकार के राज्यादि में जाना-आना भी पड़े तो पहले सीमावर्ती 'आरक्षक' से राज्य के भीतर जाने की स्वीकृति माँगे। यदि वह स्वीकृति देने में अपनी असमर्थता बतलाये तो क्रमश: नगर-सेठ, सेनापति, मंत्री, राजा के पास संदेश भेजकर अनुमति माँगे, तत्पश्चात उस राज्य में प्रवेश करें। पुन: लौटते समय भी उक्त क्रम से ही स्वीकृति प्राप्त कर बाहर आयें। यह औत्सर्गिक नियम है। अपवादत: भिक्षु निम्न कारणों में निषिद्ध स्थानों पर भी गमनागमन कर सकता है52