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316... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
अरिहन्त देवों की जन्म भूमि आदि को साक्षात देखता है तब निःशंकता, उपबृंहणा, वात्सल्यता आदि गुण उत्पन्न होने से सम्यक दर्शन अत्यन्त विशुद्ध हो जाता है।
2. स्थिरीकरण - विचरणशील भव्य आचार्य को देखकर वहाँ स्थित संविग्न मुनियों में संवेग उत्पन्न होता है। आचार्य स्वयं अप्रमत्त और विशुद्ध लेश्या वाले होने से तत्रस्थ संविग्न मुनियों का स्थिरीकरण करता है ।
3. देशी भाषा कौशल - मालवा, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रदेशों की भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं। वहाँ विचरण करने वाला मुनि उन-उन देशों की भाषाओं में निष्णात हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह विभिन्न देशी भाषाओं में निबद्ध ग्रन्थों के उच्चारण और अर्थ का व्याख्यान करने में कुशल हो जाता है । इससे तद्स्थानीय लोगों को उनकी भाषा में धर्म का उपदेश दे सकता है और उन्हें प्रतिबुद्ध कर प्रव्रजित भी कर सकता है । शिष्य गण ऐसा भी सोच सकते हैं कि ये आचार्य हमारी भाषा में बोलते हैं, अतः हमारे हैं। इस तरह वे आचार्य के प्रति प्रीति से बंध जाते हैं।
4. अतिशय उपलब्धि - भाष्यकार संघदासगणि कहते हैं कि विहार करने पर भ्रमणशील मुनियों की भिन्न-भिन्न विद्याओं के पारगामी आचार्यों और बहुश्रुत मुनियों से भेंट होती है। उसे तीन प्रकार के अतिशयों की उपलब्धि होती है1. सूत्रार्थ अतिशय 2. सामाचारी अतिशय और 3. विद्या - योग - मंत्र विषयक अतिशय। ये भावी आचार्य देशाटन कर रहे हैं यह सुनकर तथा उन्हें देखकर अन्यान्य आचार्यों के शिष्य भी सूत्रार्थ ग्रहण में पराक्रम करते हैं इस तरह सूत्रार्थ अतिशय की प्राप्ति होती है । भिन्न-भिन्न आचार्यों या मुनियों का परिचय होने से उनकी सामाचारी से अवगत हो जाता है। इस तरह सामाचारी अतिशय का लाभ होता है । अन्यदेशीय लोग उस पर किसी प्रकार का दुष्प्रयोग न कर दें, किन्हीं बाहरी शक्तियों से कोई साधु भ्रमित न हो जाएं इत्यादि कई प्रसंगों को लेकर वह मुनि विद्या-मंत्रादि का अभ्यासी बन जाता है । इस प्रकार विद्या-मंत्रादि अतिशय को उपलब्ध करता है ।
5. जनपद परीक्षा - विहार करने से विविध प्रदेशों की सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान होता है। इसी के साथ देव दर्शन का लाभ प्राप्त करते हुए जनपदों की परीक्षा कर लेता है, जैसे लाट देश में वर्षा के पानी से और सिन्धु