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218...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन तक अर्थात आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से लेकर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक गृहस्थों से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है, किन्तु वर्षाकाल के बाद हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में अर्थात मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा से लेकर आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त आठ मास तक आवश्यकता के अनुसार वस्त्र ग्रहण कर सकते हैं। इस तरह वस्त्र ग्रहण हेतु आठ मास का प्रावधान है। वस्त्र ग्रहण किस क्रम से करें?
जैनागमों में वस्त्र ग्रहण के सम्बन्ध में यह भी विधान किया गया है कि जब कभी साधु या साध्वी को गृहस्थ से वस्त्र ग्रहण करना हो तो उन्हें चारित्र पर्याय की हीनाधिकता के क्रमानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। इस नियम के अनुसार जो साधु-साध्वी सबसे अधिक चारित्र पर्याय वाले हों, उन्हें सर्वप्रथम प्रदान करना चाहिए। तत्पश्चात क्रमश: अल्प-अल्पतर चारित्र पर्याय वाले को देना चाहिए। इसी तरह पात्रादि अन्य उपधियों को भी चारित्र पर्याय की न्यूनाधिकता से लेना और देना चाहिए, क्योंकि व्युत्क्रम से लेने या देने पर रत्नाधिकों का अविनय, आशातना आदि होती है, जो साधु मर्यादा के प्रतिकूल है। वस्त्र की संख्या एवं उसका परिमाण क्या हो?
विमुक्ति की साधना में लीन श्रमण के लिए संयम रक्षार्थ वस्त्रादि उपधि रखना भी शास्त्र अनुमत है। इस अनुमति के साथ यह भी निर्देशन है कि वह अपनी आवश्यकता को कम करता जाये और लाघव-धर्म की साधना में अग्रसर हो।
जैन भिक्षु किस परिमाण के कितने वस्त्र रख सकता है? इस सन्दर्भ में उल्लेख है कि श्रमण बहत्तर हाथ वस्त्र रख सकता है और श्रमणियाँ छियानवे हाथ वस्त्र रख सकती हैं। आचारांगसूत्र में मुनियों के लिए एक से लेकर तीन तक के वस्त्रों का विधान है। श्रमणी के लिए चार वस्त्रों तक का विधान है। बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार मुनि पाँच प्रकार के वस्त्र उपयोग में ले सकता है- 1. जांगिक (ऊनादि के वस्त्र) 2. भांगिक (अलसी का वस्त्र) 3. सानक (सन-जूट का वस्त्र) 4. पोतक (कपास का वस्त्र) और 5. तिरीडपट्टक (तिरीड वृक्ष की छाल का वस्त्र)
भाष्यकार के अनुसार साधु-साध्वी को दो सूती और एक ऊनी ऐसे तीन