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174... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
3. अतुरियं (अत्वरित) - उपयोग शून्य होकर जल्दी-जल्दी प्रतिलेखना नहीं करनी चाहिए।
4. पडिलेहे (प्रतिलेखन ) - वस्त्र के तीन भाग करके पहले एक ओर से सम्पूर्ण देखना, फिर पासा बदलकर दूसरी ओर से सम्पूर्ण देखना चाहिए। 5. पप्फोडे (प्रस्फोटन) - वस्त्र के सम्पूर्ण भाग को एक बार देखने के बाद दूसरी बार उसके दोनों किनारों को पकड़कर यतना से धीरे-धीरे झड़का चाहिए।
6. पमज्जिज्जा (प्रमार्जना ) - तीसरी बार वस्त्र पर सटे हुए जीव हाथ के ऊपर गिरते हों, उस तरह से वस्त्र की प्रतिलेखना करनी चाहिए। सामान्यतया वस्त्र प्रतिलेखना में आँखों से वस्त्रों का निरीक्षण करना, वस्त्र को बिना आवाज किये झटकना और वस्त्र की प्रमार्जना करना ये तीन क्रियाएँ मुख्य होती हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार वस्त्र प्रतिलेखना करते समय निम्न छह प्रकार की सावधानियाँ भी विशेष रूप से रखी जानी चाहिए 36
1. अनर्तित - प्रतिलेखना करते समय शरीर और वस्त्र को इधर-उधर न नचाएं।
2. अवलित- प्रतिलेखना करते समय शरीर और वस्त्र को न मोड़ें अथवा वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ न हो अथवा वस्त्र या शरीर को चंचल न बनाएं। 3. अननुबन्धी- प्रतिलेखना करते समय जब जो विधि आये, तदनुसार आस्फोटन, प्रस्फोटन, प्रमार्जन आदि करें। क्रम का उल्लंघन न करें अथवा वस्त्र को दृष्टि से ओझल न करें या वस्त्र को अयतना से न झटकाएं।
4. अमोसली - प्रतिलेखना करते समय धान्यादि कूटते हुए मूसल की तरह वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछे दीवार आदि से स्पर्श नहीं करवायें। 5. षट्पुरिम नवखोडा - प्रतिलेखना करते समय छह पुरिम और नवखोडा करें। षट्पुरिम का रूढ़ अर्थ है - वस्त्र के दोनों ओर के तीन-तीन हिस्से करके उन्हें (दोनों हिस्सों को) तीन-तीन बार खंखेरना, झड़काना। नवखोडा का अर्थ है-स्फोटन अर्थात प्रमार्जन । वस्त्र को अंगुलियों के बीच दबाकर (पकड़कर) हथेली से कोहनी की तरफ ऊपर ले जाते हुए