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28...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन स्वभाव से युक्त, रुधिर, मांस, मज्जा, अस्थि आदि अनेक अपवित्र वस्तुओं से निर्मित है।
जैसे नमक की खान में गिरने वाला पदार्थ नमक बन जाता है, उसी तरह जो भी पदार्थ शरीर के संयोग में आते हैं वे अपवित्र बन जाते हैं। यह सुगंधित पदार्थों को भी दर्गन्धित कर देता है। इस शरीर के नौ द्वारों-आँख, कान, नाक आदि से सदैव गन्दगी बहती रहती है। जिस प्रकार कोयला अपने रंग को नहीं छोड़ता उसी प्रकार शरीर को साबुन से धोने पर भी अपनी दुर्गन्ध का त्याग नहीं करता है। __लाभ- अशुचि भावना का चिन्तन करने से शरीर के प्रति निर्वेद भाव उत्पन्न होता है और साधक आत्मोन्मुखी बनता है। ___7. आश्रव भावना- मन, वचन और काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा कर्मों का आगमन होना आस्रव कहलाता है। कर्मबन्ध का मूल कारण आस्रव है, अत: बन्धन के कारणों पर विचार करना आस्रव भावना है। अशुभ कर्मों का बन्धन 42 कारणों से होता है, क्योंकि कर्म आस्रव के 42 द्वार हैं। आश्रव भावना करने वाले साधक को पाँच अव्रत, पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, तीन योग
और पच्चीस क्रिया ऐसे 42 आस्रव द्वारों के स्वरूप का विचार करते हुए उनसे दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसे पतंगा रूपासक्ति के कारण दीपक में गिर कर जल जाता है वैसे ही एक-एक इन्द्रिय विषय की आसक्ति भी व्यक्ति को विनष्ट कर देती हैं।
लाभ-इस भावना के चिन्तन से जीव अव्रत आदि के दुष्परिणामों को जान लेता है। उसके परिणामस्वरूप व्रतादि ग्रहण करता है। इन्द्रिय और कषायों का दमन करता है, योग का निरोध करता है तथा अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होने हेतु प्रयत्नशील बनता है।
8. संवर भावना- जिन क्रियाओं से कर्मों का आना रुक जाता है उसे संवर कहते हैं। अत: आस्रव द्वारों को निरुद्ध करने वाले व्रत, समिति, गुप्ति, परीषह आदि का चिन्तन करना संवर भावना है।
हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि जिस आस्रव को जिन उपायों से रोका जा सके, उसे रोकने के लिए उस-उस उपाय को साधने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसे क्षमा से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और निस्पृहता से