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128...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन गये हैं। जघन्य उपधि में - मुखवस्त्रिका, पूंजणी और दो गुच्छा ये चार उपकरण शामिल हैं।13
औधिक उपधि के जघन्य आदि प्रकारों का तात्पर्य यह है कि जैन साधुसाध्वी अल्पतम अथवा अधिकतम उतनी उपधि रख सकते हैं। औधिक उपधि के माप एवं प्रयोजन
ओघनियुक्ति, पंचवस्तुक, प्रवचनसारोद्धार आदि में औधिक उपधि का माप एवं उसके प्रयोजन इस प्रकार निरूपित हैं___1. पात्र- पात्र तीन प्रकार के परिमाण वाले होते हैं 1. तीन बेंत (वितस्ति या बालिश्त) और चार अंगुल अधिक परिमाण वाला पात्र उत्कृष्ट कहलाता है, 2. तीन बेंत और चार अंगुल परिमाण वाला पात्र मध्यम कहलाता है और 3. तीन बेंत और चार अंगुल से कम परिमाण वाला पात्र जघन्य कहलाता है।14
प्रयोजन - तीर्थंकर पुरुषों ने पात्र रखने के निम्न हेतु बताये हैं - इससे षट्काय जीवों की रक्षा होती है, आधाकर्मी दोष से बचाव होता है। पात्र होने पर ही गुरु, ग्लान, बाल मुनि, राजपुत्रादि एवं आगन्तुक मुनियों को यथायोग्य आहार लाकर दिया जा सकता है तथा सामुदायिक संस्कृति एवं मंडली मर्यादाओं का पालन हो सकता है।
2. पात्रस्थापन (झोली)- झोली का परिमाणं पात्र के माप के अनुसार होना चाहिए अथवा गांठ लगाने पर दोनों कोण चार अंगुल परिमाण युक्त होने चाहिए। प्राचीन परम्परा में झोली में गांठ नहीं लगायी जाती थी, अभी आचरणावश झोली में गांठ लगाते हैं।15
प्रयोजन- झोली का उपयोग आहार के लिए पात्रों को रखने एवं उनकी सुरक्षा के लिए किया जाता है।
3. दो गुच्छा-पात्र केसरिका - पात्र स्थापन, पात्र केसरिका और गोच्छग ये तीनों एक बालिश्त और चार अंगुल परिमाण वाले होने चाहिए।16
प्रयोजन - नीचे का गुच्छा रजकण आदि से पात्र का रक्षण करने हेतु उपयोगी होता है। गोच्छक (ऊपर का गुच्छा) पडले का प्रमार्जन करने में उपयोगी होता है तथा पूंजणी पात्र प्रमार्जन में उपयोगी बनती है। ओघनियुक्ति के अनुसार प्रत्येक मुनि एक-एक गोच्छग और पात्र स्थापन रख सकता है। प्रत्येक पात्र की एक-एक पात्र केसरिका होती है।