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श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र किया और भाव पूर्वक वह उनकी सेवा करने लगा। उसने मुनिवर को रो रोकर अपना उद्धार करने की विनती की । उसे धर्माराधना का स्मरण हो गया । मुनिवर ने उसे उपदेश दिवा, 'हे वन-हस्ती! तुम तिर्यंच होने के कारण संयम अंगीकार नहीं कर सकते, परन्तु अपना सन्ताप मिटा कर जैन धर्म अंगीकार करो, सम्यक्त्व युक्त ग्यारह व्रत ग्रहण करो और भव-सागर से उद्धार करने वाले पंच परमेष्ठि का एकाग्र चित्त से नित्य स्मरण करो।'
हाथी ने नत-मस्तक होकर अपनी सूंड ऊपर उठाई और व्रत ग्रहण करने के लिए वह सहमत हुआ । तव मुनिवर ने हाथी को ग्यारह व्रत ग्रहण कराये और वह विशुद्ध व्रतधारी सम्यक्त्व प्राप्त करके पीछे हट गया और जिस मार्ग से वह आया था, उसी मार्ग से लौट गया। अरविन्द मुनिवर शुद्ध चारित्र का पालन करके, अन्त समय में अनशन करके स्वर्ग सिधारे । हाथी को वैराग्य उत्पन्न होते ही वह सचित्त आहार का त्याग करके नीरस शुष्क पत्ते खाने लगा। उसने संसार के कीचड़ में फँसाने वाली हथिनियों के साथ विषय-भोगों का परित्याग कर दिया और जयणा पूर्वक निर्वाह करने लगा। प्राण जाये पर प्रण न जाय, उसके लिए वह सतर्कता पूर्वक व्रतों का पालन करने लगा। इस प्रकार देह-कष्ट सहन करने से हाथी कृशकाय हो गया । उधर कमठ दुर्ध्यान में मर कर इसी वन में एक भयानक हिंसक साँप वन गया और जीवों की हिंसा करता हुआ वह क्रूरतापूर्ण जीवन जीने लगा।
VANAVINVELI
रिसामएस
- पार्श्वनाथ प्रभु का जीव हाथी के भव में नतमस्तक होकर अपनी सुंड ऊंठा कर व्रत ग्रहण करने की सहमति देता है।