Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 27
________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ और अपने दिव्य ज्ञान से यह जानकर कि इसका थूक विकृत हो चुका है, उनका मन घृणा से भर गया और देखते ही उन्होंने नाक-भौंह सिकोड़ लिये। सनत्कुमार ने गर्व से कहा, 'आपने मुझे स्नानागार में देखा था, उसकी अपेक्षा इस समय में कितना सुन्दर दिखायी दे रहा हूँ ?' व्राह्मण बोले, 'महाराज! वह रूप तो छू मन्तर हो गया, इस समय तो आप महा व्याधि-ग्रस्त प्रतीत हो रहे हैं।' ब्राह्मणों की वात सुनकर जब सनत्कुमार ने अपनी देह पर हाथ फिराया तव उन्हें यह पता चला कि उनकी देह रोग-ग्रस्त होकर दुर्गन्धमय हो चुकी थी। देवों ने अपना वास्तविक स्वरूप बताया और कहा, 'इन्द्र द्वारा आपकी प्रशंसा करने के कारण हम आपको निहारने के लिए यहाँ आये थे, परन्तु स्नानागार में जो रूप था, वह अब नहीं है।' राजा समझ गया, 'मेरे रूप को मेरे अहंकार ने ग्रस्त कर लिया है । मैं मुर्ख अनित्य देह में मूर्च्छित बनकर भान भूल वैठा ।' उस समय उनमें वैराग्य-भावना जाग्रत हो गई और उन्होंने बिनयंधर मुनिवर के कर-कमलों से दीक्षा अङ्गीकार की। सनत्कुमार राजर्षि की देह को सूजन, साँस, अरुचि, उदर-वेदना नेत्र-पीड़ा आदि ७ महाव्याधियों ने घेर लिया। जितना सुन्दर उनका रूप था, उतनी ही कुरूप उनकी देह वन गई। मुनिवर ने इसकी तनिक भी चिंता नहीं की। उनकी व्याधि की चिकित्सा हेतु आने वाले वैद्यों एवं देवों को वे उपचार करने की अनुमति तक प्रदान नहीं करते । वे तो समता भाव से समस्त व्याधियों को ७०० वर्ष तक सहन करते रहे । छठ के पारणे छठ करते उन तपस्वी मुनिवर को अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुईं और वे समस्त व्याधियों को सहज भाव से सहन करते रहे। वे विजय एवं वैजयन्त देव पुनः वैद्यों का रूप धर कर सनत्कुमार राजर्षि के पास आये और निवेदन करके कहने लगे, 'हे महाभाग! यदि आप आज्ञा दें तो हम आपके रोगों का प्रतिकार करें।' राजर्षि ने कहा, 'मैं तो भाव-रोगों के प्रतिकार के लिये प्रयत्नशील हूँ। मुझे द्रव्यरोगों के प्रतिकार की आवश्यकता नहीं है । उनके लिए तो देखो' - ऐसा कहकर कुप्ठ वाली अंगुली को थूक में भिगो कर देह पर घिसी तो देह का वह भाग तुरन्त कंचनवर्णमय हो गया। देव आश्चर्य चकित होकर वोले, 'रोग-प्रतिकार की लब्धि एवं क्षमता होते हुए भी देह के प्रति निर्ममता रखने वाले राजर्पि आप धन्य हैं ।' मुनिवर को वन्दन करके अपना स्वरूप बता कर वे देव स्व स्थान पर चले गये।

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