Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 62
________________ सच्ची माता अर्थात् मुनि अरणिक की कथा उसकी देखभाल से उनका चित्त हटा नहीं । अरणिक को तनिक भी कष्ट न हो उसका वे अत्यधिक ध्यान रखते । सर्दी-गर्मी सब में वह कहीं दुःखी न हो उसका वे ध्यान रखते और गोचरी आदि सव करने के कार्य वे कर देते । साधी साधु यदि कहते कि वाल साधु को भिक्षा लेने क्यों नहीं भेजते? तो वे कहते कि 'बहुत समय है, सील जायेगा।' समय जाने पर ग्रीष्म ऋतु में दत्त मुनि कालधर्म को प्राप्त हो गये। गोचरी लाने का बोझ अरणिक के सिर आया | दो चार दिन तो साथी साधु गोचरी ले आये, परन्तु फिर अरणिक को अनिवार्य रूप से गोचरी (भिक्षा) के लिए निकलना पड़ा। ठीक मध्याह्न का समय था | धरातल तवे सा तप रहा था । नंगे पैर, नंगे रिख, युवावस्था में प्रविष्ट होता रूप का अम्बार युवक अरणिक मुनि पात्रों की झोली लेकर अन्य साधुओं के साथ भिक्षार्थ निकला | भिक्षा कैसे माँगनी और किस प्रकार प्राप्त होगी. इन सब विचारों में उलझता हुआ वह अपने आश्रय-स्थल के बाहर निकला, परन्तु अंगारे बरसाने वाली ग्रीष्म ऋतु ने उसे कदम कदम पर रूकने के लिए विवश कर दिया। साथी साधु तो धूप के अभ्यरत होने के कारण शीघ्रता से आगे निकल गये ! अणिक अकेला पड़ गया। थोडे धूप में तो थोड़े छप्पर की छाया में चलकर अरणिक आगे बढ़ा । इतने में उसका गला सूखने लगा, पाँव जलने लगे और सिर तपने लगा | उस समय उसने सामने एक RAMIN हर सोमपुरा धुप से अभ्यस्त साधी साधु आगे निकल गए. जबकि अरणिक अकेला पड़ गया.

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