Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 132
________________ पिता-पुत्र अर्थात् किर्तिधर एवं सुकोशल मुनि १२१ मानव-भव में ही जीव उत्कृष्ट आराधना कर सकता है । जगत् के नश्वर आनन्द की अपेक्षा इस भव में ऐसा कार्य करो कि जिससे शाश्वत आनन्द मोक्ष की प्राप्ति हो ।' वज्रबाहु ने उदयसुन्दर की ओर उन्मुख होकर कहा, 'मैं मुनीश्वर वनता हूँ । तुम मेरे साथी बनोगे न?" 'क्या कह रहे हो? मैं तो उपहास कर रहा था' यह कहते हुए उदयसुन्दर को वडा भारी आघात लगा । 'हास्य से रोवन की हुई औषधि व्याधि दूर कर सकती है। भले ही तुमने हास्य में कहा हो, अब उसे सत्य कर बताओ ।' 'महाराज ! मुझे आपके दर्शन एव उपदेश से वैराग्य हो गया है। आप मुझे दीक्षित करें ।' मुनि को नमस्कार कर वज्रवाहु ने स्वयं को दीक्षित करने के लिए निवदेन किया । मनोरमा, उदयसुन्दर और उनके साथ आये सब पुरूषों ने वज्रबाहु के साथ दीक्षा अङ्गीकार की । वसन्तकेलि का उत्सव धर्मकेलि में परिणत हो गया। और उदयसुन्दर का हास्य-वचन सचमुच सवका उद्धारक बना । ये समाचार दादा विजय राजा ने सुने । वे वज्रबाहु की दीक्षा से चिन्तित नहीं हुए बल्कि उन्होंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, 'पुत्र भाग्यशाली है जिसने युवावस्था में संयम ग्रहण किया और मैं तो अभी तक संसार में ही उलझा हुआ हूँ ।' उन्होंने तुरन्त पिताश्री पुरन्दर को राज्य सौंपा और दीक्षा ग्रहण की। पिता पुरन्दर भी अल्प समय में ही मुझे राज्य सौंप कर दीक्षा के पावन पथ पर अग्रसर हुए । (३) स्वप्न में से जाग्रत होकर चौंककर बोलते हैं उस प्रकार मंत्रियों को सम्बोधित करके कीर्तिधर ने कहा, 'मंत्रीगण ! मुझे संसार विषम प्रतीत होता है, राज्य - ऋद्धि एवं भोग भयावह प्रतीत होते हैं। किसी योग्य व्यक्ति को राज्य सिंहासन पर बिठाकर मुझे इस बोझ से मुक्त करो।' 'राजन्! राज्य का अधिकारी कोई बाजार में थोड़े ही मिलता है ? परम्परागत संस्कार युक्त राज्य- कुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति ही सच्चा अधिकारी हो सकता है और आप अकेले अपने स्वार्थ के लिए लाखों प्रजाजनों के हित का विचार न करें तो क्या यह उचित है ?' राजा कीर्तिवर उलझन में पड़ गये और राज्य के उत्तराधिकारी की चिन्ता ने उन्हें घेर लिया। कुछ ही दिनों में उनकी रानी सहदेवी के पुत्र हुआ। रानी एवं अमात्यगण अच्छी तरह जानते थे कि पुत्र होने का समाचार राजा सुनेंगे तो तुरन्त वे संयम के

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