Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ सती की सहनशीलता अर्थात् सती अञ्जना सुन्दरी १३५ रख कर श्रेष्ठ ही किया है, और पिताजी! आपने भी अपनी कलंकिनी पुत्री को अपने द्वार से धक्के मार कर निकाल दिया यह सर्वथा उचित है और प्रिय भाई प्रसन्नकीर्ति! मैं तुम्हारा भी अभिनन्दन करती हूँ कि तुमने अपनी पापी बहन को जंगल में भेज दिया; परन्तु मैं इस प्रकार कटाक्ष (व्यंग) क्यों कर रही हूँ? इसमें उन लोगों का क्या दोष? मेरे भाग्य का ही दोप है । विधि का विरोध करने से लाभ भी क्या है? कर्म का ही कोई दोष होगा । आज मेरे पतिदेव मेरे पास नहीं हैं। पतिविहीन पत्नी को कैसेकैसे कष्ट सहन करने पड़ते हैं इसका मुझे आज अनुभव हो रहा है।' इस प्रकार रोती-विलखती अञ्जना ने मानो जंगल के वृक्षों एवं पशुओं को रुलाया हो, इस भाव को प्रकट करते हुए वृक्षों से पत्ते झड़ने लगे। इसी मध्य श्री अमितगति मुनि मिले। उन्होंने उसे धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया और उसे उसका पूर्व-भव बताकर उसे धैर्य बंधाया। नौ माह के पश्चात् अञ्जना ने एक पराक्रमी पुत्र को जन्म दिया, परन्तु पुत्र के जन्मोत्सव मनाने के लिए इस समय अञ्जना के पास एक फूटी कौडी भी कहाँ थी? इतने में प्रतिसूर्य' नामक एक खेचर वहाँ आया। उसने अजना का वृत्तान्त सुनकर उसे कहा, 'हे अञ्जना! तू मुझे पहचानती नहीं है परन्तु मैं तेरा मामा लगता हूँ । अतः तुम सब मेरे साथ चलो।' तत्पश्चात् वह उन सबको एक विमान में बिठा कर अपने नगर हनुमानपुर ले चला । मार्ग में अजना का पुत्र विमान के रत्नमय झुमके को पकड़ने के लिए माता की गोद में से बाहर कूद पड़ा । वह कुदा हुआ वालक एक पहाड़ पर गिरा और उसके अंगों के प्रहार मात्र से उस पहाड़ के टुकड़े-टुकड़े हो गये । प्रतिसूर्य ने उस बालक को पुनः उसकी माता की गोद में लाकर रखा । वह वालक सर्व प्रथम हनुमानपुर नगर में आया होने से उसका नाम 'हनुमान' रखा गया और उसके भार से पहाड़ के टुकड़े-टुकड़े हो जाने से उसका दूसरा नाम 'श्रीशैल' रखा गया । दिन. प्रतिदिन हनुमान बड़ा होने लगा। रावण के साथ गये हए पवनंजय ने वरुण को पराजित किया और अन्य राजा को अपना पराक्रम बताया । रावण की अनुमति लेकर जब वह घर आया तब उसे ज्ञात हुआ कि गर्भ-सम्भावना के कारण अञ्जना घर से निकाल दी गई है । पवनंजय अत्यन्त विलाप करता हुआ जंगल में चला गया और वह अञ्जना के पीहर में गया। वहाँ भी अञ्जना का किसी ने सत्कार नहीं किया था, यह सुनकर पवनंजय को अत्यन्त दुःख हुआ। उसने अग्नि में प्रवेश करके अग्नि स्नान करने का निर्णय किया । उसने अपने माता-पिता को अपने अग्नि-प्रवेश के निर्णय का समाचार दिया । समाचार सुनकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164