Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 151
________________ सचित्र जैन कथासागर भाग १ शालिभद्र ने कहा, 'महाराज ! इन्हें सहर्ष भेजें।' युवक की ओर उन्मुख होकर उन्होंने कहा, 'तुम नित्य यहां आकर दोनों समय भोजन कर जाना ।' अध्ययन करने की तीव्र अभिलाषा, सहाध्यायी का योग और निश्चिन्तता के कारण वह ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश कर लगन से अध्ययन करने लगा। देखते ही देखते उसने अच्छा अध्ययन कर लिया और शालिभद्र के घर सात्विक आहार से उसकी देह भी वैसी ही हृष्ट-पुष्ट हो गई। १४० (५) कपिल जव श्रावस्ती में आया तव अनपढ़, अनगढ़ एवं संस्कार रहित था। अब वह चतुर एवं बुद्धिमान बन गया था। शालिभद्र सेठ के घर मनोरमा नामक एक युवा दासी थी । सेठ के घर पर सबके भोजन करने के पश्चात् कपिल आता । कपिल को मनोरमा भोजन परोसती और प्रेम पूर्वक खिलाती । समय बीतते-बीतते उनमें परस्पर प्रेम हो गया । कपिल एवं मनोरमा परस्पर उलझ गये। कभी-कभी इन्द्रदत्त को उलटासीधा समझाकर कपिल शालिभद्र के घर रह जाता। कभी दासी सेठ के घर से बहाना बना कर कपिल के साथ आनन्द मनाने अन्यत्र चली जाती। कई दिनों तक इस प्रकार परस्पर चलता रहा । एक वार कौशाम्बी में भारी उत्सव था। समस्त स्त्रियाँ नये-नये वस्त्र पहन कर घूमने जा रहीं थी । उनमें भी दास-दासियाँ तो विशेष रूप से आगे थी । मनोरमा ने कपिल को कहा, 'तेरे समान युवा मेरा प्रिय है और फिर भी मुझे फटे हुए वस्त्रों में रहना पड़ता है | देख तो ये सब दास-दासियाँ कैसा आनन्द मना रहीं हैं ? क्या तू मुझे वस्त्र लाकर नहीं दे सकता?" कपिल कमाना जानता नहीं था। उसने श्रावरती में आने के पश्चात् पैसों की शक्ल भी नहीं देखी थी, क्योंकि भोजन तो सेठ के घर करना था और वस्त्र भी यजमान के घर से प्राप्त हो जाते थे। उसने कहा, 'मनोरमा! पैसे के विना यह कैसे सम्भव हो सकता है?' मनोरमा ने कहा, 'मेरी बात मानो तो वस्त्र आये उतने पैसे प्राप्त हो जायेंगे !' 'किस प्रकार ?' 'इस नगर में धन नामक एक अत्यन्त धनवान सेठ है। उसके घर प्रातःकाल जो सर्व प्रथम उसे आशीर्वाद प्रदान कर कृतार्थ करता है, उसे वह दो माशा स्वर्ण प्रदान करता है और आप यदि वह ले आयें तो मेरे वस्त्रों का मूल्य निकल आयेगा', - दासी ने मार्ग बताते हुए कहा । कपिल प्रसन्न होकर वोला, 'मनोरमा! तो अवश्य ही मैं सेठ के घर जाऊँगा और

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