Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 144
________________ सती की सहनशीलता अर्थात् सती अञ्जना सुन्दरी में भयभीत हुआ कि यदि वह अपने माता-पिता अथवा अन्य स्वजन-सम्बन्धियों को मेरे आगमन के सम्बन्ध में बतायेगी तो वे लोग मुझे धिक्कारेंगे । इस भय से वह चुपचाप सरोवर की और विदा हो गया। अञ्जना सुन्दरी गर्भवती हो गई। उस दिन से उसका गर्भ बढ़ता रहा। स्वजनों को इस बात का पता लगा। उसकी सास ने कहा, 'पापिन! मेरा पुत्र युद्र में है और तेरे गर्भ कैसे रह गया? तू व्यभिचारिणी है । अतः इस घर में अब तेरा कोई स्थान नहीं है। तू इसी समय मेरे घर से निकल जा ।' पवनंजय ने वहाँ से विदा होते समय अञ्जना सुन्दरी को स्नेह के कारण अपने नाम वाली (नामांकित) एक रत्नजडित अंगूठी प्रदान की थी । अञ्जना ने वह अंगूठी बताकर कहा, 'आप मुझ पर विश्वास रखें । वे रात्रि में यहाँ आये थे । मैंने पर-पुरुष का कदापि सेवन नहीं किया। मैं सर्वथा निर्दोष हूँ।' परन्तु सास ने यह बात नहीं मानी और उसने राजा प्रहलाद को कहा, 'पुत्र-वधू कुलटा है, इसे अपने पिता के घर भेज दिया जाय ।' (३) राजा के सेवक अञ्जना को एक रथ में विठा कर उसके पिता के नगर महेन्द्रपुर के समीप छोड़ आये । अञ्जना के साथ थी केवल एक उसकी प्रिय सखी वसन्ततिलका । अञ्जना को मन में विश्वास था कि 'मेरे पिता मुझे अवश्य आश्रय देंगे।' अतः उसने वसन्ततिलका को अपने पिता के प्रतिहारी के पास भेजा । बसन्ततिलका ने उस प्रतिहारी KON. Pyrrenita arn करि मार । अंजना की सास ने कहा, 'हे पापिन! न व्यभिचारीणी है, अत: इस यर में तेरा कोई स्थान नहीं है, तूं इसी समय यहाँ से चली जा!

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