Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 130
________________ (१८) पिता-पुत्र अर्थात् कीर्तिधर एवं सुकोशल मुनि "धर्म करो भाई, धर्म करो भाई' का स्वर साकेतपुर के राजा कीर्तिधर के कानों में पड़ा। उन्होंने राजपथ पर देखा तो भंगी जोर-जोर से यह चिल्ला रहे थे और लोगों के दल के दल नदी की ओर स्नान करने के लिए प्रयाण कर रहे थे । राजा पल भर के लिए विचार में पड़ गया। नगर में ऐसे कौन से व्यक्ति का देहान्त हो गया है कि छोटे-बड़े सभी स्नान करने के लिए जा रहे है? उसने लोगों की कैसी चाह प्राप्त की है? और ऐसी चाह भी परोपकार के बिना थोड़े ही प्राप्त होती है? क्या उसकी गुणगरिमा? यह विचार-माला पूर्ण करे इतने में ही पुनः ‘धर्म करो भाई, धर्म करो' के तीव्र घोष ने उसका विचार-क्रम भंग कर दिया। उन्होंने सेवक को पूछा, 'मालूम करो कि किस का देहान्त हुआ है जिससे लोग घबराये हुए नदी पर जा रहे हैं?' 'महाराज! चराचर विश्वभर के उपकारी तेजस्वी सूर्य नारायण राहु द्वारा ग्रसित हुए हैं। अतः भंगी 'धर्म करो' ऐसी आवाज लगा रहे हैं उनके इस उच्चकधन का भाव है ऐसे सूर्यनारायण जैसे देव को भी राहु के द्वारा ग्रसित होना पड़ता है। अतः कोई अहंकार मत करना । आज का सुख कल कव मिट्टी में मिल जायेगा उसका मनुष्य को थोड़े ही ध्यान है? यदि सच्चे सुख की कामना हो तो समस्त झंझटों को छोड़ कर 'धर्म करो, धर्म करो' इस प्रकार यह घोषणा हमें सावधान करती है। विश्वभर का उपकारी सूर्यदेव! यदि उदय नहीं हो तो वनस्पति कैसे विकसित होगी? वादल कहाँ से बनेंगे? विश्व जीवित कैसे रहेगा? ऐसे तारणहार का भी राहु से ग्रस्त होना? श्याम-मुखी बनना? और उसे देख कर लोगों का स्नान करना दान-धर्म करना? अहो! तो मैं कौन हूँ? मेरा वैभव कितना? मेरा आयुष्य कितना? किस बात का है यह आडम्बर? और किसलिये मैं लाल-पीला हो रहा हूँ? 'देवि! मानव-भव का आयुष्य कितना? सम्पत्ति, एवं राज्य की प्राप्ति में और उनकी सुरक्षा में उपाधि कितनी? और उनसे लाभ भी क्या? क्या यह आसक्ति और क्या उस पर विश्वास?' रानी की ओर उन्मुख होकर राजा ने राज्य-सम्पत्ति के प्रति अन्यमनस्कता प्रदर्शित करते हुए कहा, 'मंत्रियो! क्या आप मेरे परामर्शदाता हो? सच्चे परामर्शदाता नहीं हो । मैं भोग-सुख में प्रफुल्लित होता हूँ, परन्तु कल मिट्टी में मिल जाऊँगा, क्या

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