Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 128
________________ नमस्कार मंत्र स्मरण अर्थात् अमरकुमार वृत्तान्त ११७ (४) राजगृही के समस्त चौराहों पर और मोहल्लों में अमर का माहात्म्य गाया जा रहा था। छोटे बड़े सभी वालक अमर का गुण-गान कर रहे थे......। यह वात भद्रा ने सुनी। उसका पुत्र जीवित हो गया, सिंहासन पर बैठा, चमत्कार बताया और अपना कल्याण किया, उससे उसे हर्ष नहीं हुआ । वह असमंजस में पड़ गई कि अभी राजसेवक आयेंगे और अमर के तोल के बराबर ली हुई स्वर्ण-मुद्राएँ ले जायेंगे | हाय! धन जायेगा, पुत्र गया, नगर में मेरी निन्दा हुई और मैं चाण्डालिनी कहलाई। भद्रा को नींद नहीं आई। वह अकेली उठी और जहाँ अमर मुनि कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े थे वहाँ गई । उसने अच्छी तरह अमर को देखा, निहारा | उसने न तो उसका आलिंगन किया, न अनुनय विनय की, परन्तु उसने बड़े-बड़े पत्थर लिये और एक एक करके अमर के सिर पर दे मारे जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मुनि ने मानव-देह का परित्याग कर दिया और बारहवे स्वर्ग का स्वांग स्वीकार किया। रक्त-प्यासी शेरनी जिस प्रकार शिकार करके सन्तोष प्राप्त करती है, उसी प्रकार अपने पुत्र अमर का संहार करके भद्रा ने सन्तोप की अनुभूति की। उसने सोच लिया कि, 'अव राजसेवक अमर को मुझे सौंपे विना कैसे धन माँगेंगे?' ‘धन, धन करती हुई लौट कर आती विकराल भद्रा नगर की ओर उन्मुख हुई कि SPEM WR AV NA . M 18 . HINDE NARTARA बायिन ने मानव-बाघिन भद्रा को वहीं पर चीर डाला! मरकर भद्रा छट्ठी नरक में उत्पन्न हुई.

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