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उपशम विवेक एवं संवर अर्थात् महात्मा चिलाती का वृत्तान्त
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बाला महा पुण्यशाली बन कर महापापी से महात्यागी बन कर अपना कल्याण करता
है ।
'महाराज ! इससे मेरे जैसे महापापी का भी उद्वार हो तो जायेगा ?' चिलाती ये शब्द पूरे करे इतने में तो मुनि को आकाश मार्ग से चले जाते हुए देखा ।
चिलाती ने हाथ ऊपर किये। 'भगवन् भगवन्' कह कर उसने प्रणाम किया और सोचने लगा - उपशम अर्थात् शान्ति, दबाना । क्या मैं अशान्त हूँ ? किसको दवाऊँ ? तनिक सोचने लगा और तलवार की ओर दृष्टि जाने पर ध्यान आया कि अशान्ति का प्रतीक तो यह मेरे हाथ में है। तुरन्त उसने तलवार दूर फेंक दी। रक्त-रंजित - हाथ, रक्त से सने वस्त्र, देह पर आई झल्लाहट; यदि शान्ति होती तो ये सब ऐसे होते ? हे तारणहार मुनि! आपने यदि मुझे पहले उपशम समझाया होता तो क्या मैं ऐसा नराधम बनता ? शान्ति नहीं है मेरे हाथ में, नहीं है देह पर, नहीं है वस्त्रों पर और नहीं है दिखावे में; परन्तु मेरा हृदय ? वह तो कोतवाल पर क्रोधित है और जो आये उसे पूर्ण करने के लिए प्रयत्नशील है । भगवान्! आपने सचमुच सत्य कहा है कि उपशम तो कल्याण का मार्ग है। मैं सबसे क्षमा याचना करता हूँ, सेठ! मेरा अपराध क्षमा करना । नगर-रक्षको ! अब मैं तुम्हारे कर्त्तव्य में बाधक नहीं बनूँगा। मैं तुमसे क्षमायाचना करता हूँ और तुम मुझे क्षमा करना
संबर अर्थात् रोकना । मैं यहाँ अकेला हूँ। घोर जंगल है। मैं किसको रोकूँ ? क्या पक्षियों को उड़ने से रोकूँ? क्या वृक्ष को हिलने से रोकूँ ? क्या वायु को रोकूँ ? किसको रोकूँ ? हा, परन्तु दूसरों को रोकने का मुझे अधिकार क्या है ? क्या में रुकूँ? क्या मैं चलना वन्द करूँ? क्या मैं बोलना वन्द करूँ ? देखना बन्द करूँ ? मुनि चले। मुनि ने उपदेश दिया। उन्होंने मेरी ओर दृष्टि डाली । उन्होंने मुझे चलने, देखने और बोलने का निषेध क्यों किया ? तव 'रुक जा' यह क्यों कहा? मैं क्या करता हूँ कि जिससे रुक जाऊँ ? विचार धारा की गहराई में उतरने पर चिलाती को समझ में आया और वह मन में बोला- हाँ समझ गया, मुनि का मुझसे यह कहने का आशय था कि तू इन्द्रियों को रोक और भटकते हुए मन को रोक । सचमुच, मन और इन्द्रियाँ दोनों अत्यन्त चंचल हैं। इसलिये उसने उन्हें रोकने का निश्चय किया और मुनि के स्थान पर कायोत्सर्ग ध्यान में रहा ।
चिलाती घोर वन में कायोत्सर्ग ध्यानस्थ रहा। उसके पाँव, हाथ और देह पर चीटियों के ढेर जम गये हैं। देह चलनी जैसी हो गई है, पशु-पक्षियों ने उसके हाथ-पाँव इसे हैं, फिर भी नहीं है उसकी दृष्टि में तनिक भी रोप अथवा नहीं है उसके जीवन में कोई सन्ताप । घड़ी भर पूर्व की विकराल देह वही है फिर भी आज उसमें शान्त रस