Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 118
________________ सन्देह अर्थात् झांझरिया मुनि की कथा था। पिता को पुत्र का यह व्यवहार देख कर अत्यन्त दुःख हुआ। अतः उसने पूछा कि तू इतना विह्वल क्यों है? मदनब्रह्म ने कहा, 'पिताजी! मुनिवर की देशना श्रवण करने के पश्चात् मुझे तनिक भी चैन नहीं पड़ रहा है । मुझे अपना जीवन क्षणिक प्रतीत होता है और सच्चा मार्ग संयम का प्रतीत होता है। आप मुझे संयम-पथ पर जाने की अनुमति प्रदान करें।' __'पुत्र! अभी तक तू वालक है । संयम क्या है उसका तुझे पता नहीं है और संयम में क्या क्या कष्ट है उसका तुझे ध्यान नहीं है।' 'पिताजी! संयम चाहे जितना कठिन हो, उसमें चाहे जितने कष्ट हों तो भी मैं उसका पालन करूँगा, परन्तु मुझे यह माया प्रिय नहीं है।' माता और रानियों ने मदनब्रह्म को अत्यन्त समझाया परन्तु उसे तो जीवन का एक एक पल महा मूल्यवान प्रतीत होता था और वह संयम विहीन जाने से उसे निरर्थक प्रतीत होता था। पुत्र को अटल देख कर दुःखी हृदय से माता-पिता ने उसे अनुमति प्रदान की और रानियों ने असहाय बन कर अनुमति प्रदान की। मदनब्रह्म ने संयम ले लिया। उसकी देह स्वर्ण-तुल्य कान्ति युक्त थी जो संयम के ताप से तप कर अधिक ज्योतिर्मय बन गई। उसका रूप तप-तेज. से अधिक चमकने लगा । पाद-विहार से जगत् को पावन करता हुआ वह मुनि ताम्बावती नगरी में पहुँचा । ग्रीष्म ऋतु का दिन था। मध्याह्न के समय आकाश अंगारों की वृष्टि कर रहा था। उस समय तप-तेज से तेजस्वी मुनि ने गोचरी के लिए प्रस्थान किया। शहर के मध्य भाग में से निकलते हुए मुनि पर झरोखे में बैठी हुई युवती की दृष्टि पड़ी जिसका पति परदेश में था। मुनि पर दृष्टि पड़ते ही उसका रोम-रोम पुलकित हो गया और वह सोचने लगी कि, 'यह कोई सामान्य साधु नहीं है । उसका भाल, उसके केश-कलाप और उसके नाखून उसके राज-वीज के प्रमाण है ।' युवती ने तुरन्त दासी को आदेश दिया कि मुनि को गोचरी के लिये वुला ला। नीची दृष्टि करके चलते हुए मुनि के पास आकर दासी ने प्रणाम किया और निवदेन किया, 'महाराज हमारी हवेली में पधारें।' मुनि ने दृष्टि ऊपर की और भावना देख कर वे उसके पीछे चले । हवेली में प्रविष्ट होते ही देवाङ्गना को लज्जित करे ऐसी रूपवती गृहिणी ने 'पधारो महाराज' कह कर मुनि का स्वागत किया। मुनि भवन के चौक में आये और उन्हें स्वादिष्ट लड्डू प्रदान करते हुए वह गृहिणी बोली, 'महाराज! इस गर्मी में आप मैले-कुचैले वस्त्र कैसे सहन करते हैं?'

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