Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 63
________________ सचित्र जैन कथाप्सागर भाग - १ हवेली के नीचे छाया देखी । शीघ्रता से चल कर अरणिक छज्जे के नीचे आकर खड़ा हो गया। इस समय अरणिक के अन्तर में अनेक विचार उठे । पिता सिर-छत्र कहलाते हैं उसका वास्तविक ध्यान तथा संसार में जीवन-नौका चलाना कितना कठिन है - इस सबका उसे अनुभव होने लगा। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत हो रहा था, त्वों त्यों धूप बढ़ रही थी, भूमि अत्यन्त तप रही थी। अरणिक आगे बढ़ने की इच्छा करता परन्तु धूप की गर्मी उसके पाँवों को आगे बढ़ने नहीं देती। इतने में एक दासी आई और कहने लगी, 'महाराज! भीतर आइये।' अरणिक ने समझा कि किसी श्रावक का घर होगा, भिक्षा के लिए बुला रही है। अरणिक भवन में प्रविष्ट हुआ। भवन स्वामिनी जिसका पति परदेश गया हुआ था, वह युवा स्त्री हाथ जोड़ कर सामने खड़ी रही और मुनि उसके भवन में नहीं, परन्तु मानो उसके अन्तर् में प्रविष्ट हुए हों ऐसा मान कर कहने लगी, 'आपको किसी वस्तु की आवश्यकता है?' मुनि ने नीचे दृष्टि किये हुए कहा, 'मैं भिक्षार्थ निकला हूँ।' स्वामिनी ने दासी को संकेत करके उत्तम लड्डू मँगवाये और साधु के पात्र में डाल दिये। 'महाराज! धूप अत्यन्त प्रचण्ड है। आप उपाश्रय में कहाँ जायेंगे? निकटवर्ती कक्ष में बैठ कर गोचरी कर लो । यहाँ स्थान का अभाव नहीं है।' धूप से तंग हुए मुनि भामिनी के घर के एक कोने में बैठ कर गोचरी करने का विचार कर हो रहे थे कि वह बोली, 'महाराज! इस अल्प आयु में आपने संबम क्यों अङ्गीकार किया? धूप, ठण्ड, घर-घर भटकना, मलिन बंप, क्या यह सब सुख है? सुख चाहिये? वह सब यहाँ प्राप्त होगा और इतने समय तक दीक्षा (संयम व्रत) का पालन किया उसका फल यहाँ मेरे साथ रह कर भोगी । देखो यह घर, वह ऋद्धि, यह परिवार, मैं और सर्वस्व आपका है। फिर भी आपका चित्त संयम में ही रमण करता हो तो भोगों का उपभोग करके फिर भले ही संयम-पथ पर अग्रसर हो जाना। यह युवावस्था, यह रूप-लावण्य, सव क्यों असमय में नष्ट करते हो?' भामिनी की कोयल की कुहुक तुल्य वाणी एवं उसके हाव-भावों ने अरणिक का चित्त क्षुब्ध कर दिया और वे उसमें उलझ गये । घडी पर घडी वीतती गयी परन्तु अरणिक उपाश्रय में नहीं आया । साधुओं ने स्थानस्थान पर खोज की तो भी अरणिक मुनि का पता न लगा।

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