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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ __'माता! मैंने तुम्हारे यहाँ जन्म लिया तवसे तुम मेरी देखभाल करती हो, परन्तु मैं निगोद में भटका, अनन्त भव किये, सर्दी-गर्मी सहन की, भूखा रहा, वहाँ सब जगह किसने मेरी देख-भाल की?'
'पुत्र! अपनी इन आठ पत्नियों पर दृष्टि डाल, उन्हें किसका आधार है ? तू अभी जवान है, वृद्ध होने के पश्चात सुख से दीक्षा ग्रहण करना ।' 'माता!
स्वारथ सब जग जाल है, सगा न किसी का कोय | विषयसुख विष सारिखां, कैसे भो रोय??
माता! मुझे संसार भयानक प्रतीत होता है । ये राज्य-ऋद्धि, वैभव सब निरर्थक प्रतीत होते है।
श्रेणिक महाराजा ने कहा, 'पुत्र! मेरी एक बात मान । तुझे संसार, राज्य सब दुःखदायी प्रतीत होते है, फिर भी तु एक दिन के लिए हमारी आज्ञा मानकर राजा वन जा ।'
मेघकुमार मौन रहा । महाराजा श्रेणिक ने उसे राज्य सिंहासन पर विठाया । श्रेणिक, अभयकुमार, मंत्रीगण, सामन्त सब मेधकुमार राजा के समक्ष खड़े रहे और बोले, 'राजेश्वर! आज्ञा दीजिये।
'मेरे लिए पात्र, रजोहरण, दण्ड आदि दीक्षा के उपकरण ले आओ। यह है मेरी प्रथम एवं अन्तिम आज्ञा ।' मेघकुमार ने धीर-गम्भीर स्वर में कहा ।
श्रेणिक महाराजा समझ गये कि मेघकुमार को संयम के प्रति दृढ़ राग है । उसे राज्यऋद्धि अथवा विषय-भोग कोई रोक नहीं सकेंगे। महाराजा ने दीक्षा के उपकरण मंगवाये
हरिसीमा
राजवैभव को ठुकरा कर मेघकुमार ने वीर प्रभु के पास प्रव्रज्या अंगीकार की.