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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ सम्मान के कारण वणिक ने तुम्हें निर्दोप आहार प्रदान किया है।' 'भगवन्! तब इसमें लब्धि श्री कृष्ण की है, मेरी तो नहीं है न?' 'सत्य है, तुम्हारी नहीं है।'
तुरन्त हंढण अणगार आहार के पात्र की झोली लेकर निर्जीव स्थान पर आहार डालने के लिए चले।
अनेक दिनों तक क्षुधा-तृषा को हँसते-हँसते सहन करने वाले दंढण मुनि द्वारिका के बाहर आये । निर्दोप भूमि देख कर वहाँ खड़े रहे और झोली में से लड्डु हाथ में लेकर चूरा करने लगे। ढंढण, लड्डुओं का ही चूरा नहीं कर रहे थे वल्कि इस प्रकार वह मानो अपने कर्म पिंड का ही चूरा और...क्षय...कर रहे थे। इस प्रकार उनकी विचारधारा आगे-आगे बढ़ती गई । पाँच सौ पाँच सौ मनुष्यों को भोजन के लिए अन्तराय डालने वाले मैंने पूर्व भव में थोड़ा ही सोचा था कि मैं भोजन का अन्तराय कर रहा हूँ? मेरे द्वारा वाँधा हुआ अन्तराय मैं नहीं भोगूंगा तो कौन भोगेगा? इस प्रकार धीरे धीरे आत्म परिणति में अग्रसर होते मुनि को अपनी देह के प्रति निर्माह जाग्रत हुआ
और वे शुक्लध्यान में आरूढ़ हुए। अन्तराय कर्म का क्षय करते-करते उन्होंने चारों घाती कर्मों का क्षय किया । इस ओर लड्डूओं का चूरा पूर्ण करके उन्होंने उसे मिट्टी में मिला दिया और दूसरी ओर कर्म का चूरा करके, कर्म क्षय करके केवल लक्ष्मी प्राप्त
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सोमा
ढंढण मुनि को तीन प्रदक्षिणा देकर कृष्ण बोले - 'भगवन! आपके दर्शन मेरे परम सौभाग्य का चिल है.'