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सच्ची माता अर्थात् मुनि अरणिक की कथा कर।'
'माता! संयम के विना सिद्धि नहीं है, परन्तु संयम तो तलवार की धार है, उसके परिपह मुझसे सहे नहीं जाते।' 'परन्तु क्या संयम के विना उद्धार है?' 'नहीं माता! मेरे जैसे संयम-भ्रप्ट व्यक्ति का तो किसी तरह उद्धार नहीं है। तु कहे तो मैं अनशन करूँ, परन्तु प्रतिदिन के परिषह सहन करना तो अस्थिर चित्तवृत्ति वाले मेरे लिए अत्यन्त कठिन है ।' 'तो क्या अनशन सरल है?' 'माता! भले अनशन सरल न हो, परन्तु मैं संयमभ्रष्ट व्यक्ति लोगों की अंगलियों से वताया जाऊँ कि 'यह अरणिक! जिसने संयम छोड़ दिया था' उसकी अपेक्षा अनशन करके अल्प समय में मैं अपने घोर पाप का अन्त करूँ तो कैसा रहेगा?'
साध्वी को सांसारिक पुत्रमोह नहीं था । उसे तो मेरा पुत्र संयम लेकर उसकी बिराधना करे और भवो भव भटके ? उराका दुःख था | अतः उसने कहा, 'अच्छा पुत्र! अनशन करके आत्मकल्याण कर ।'
अरणिक उपाश्रय में लौट गया, लज्जित हुआ और पुनः गुरुदेव से दीक्षित होकर उसने अनशन किया।
कर्म राजा ने जिस शस्त्र से अरणिक को पुनः संसार में प्रवृत्त किया था, लौटाया था उस शस्त्र के विरुद्ध अरणिक ने पूर्ण सावधानी से संघर्ष किया और उसमें वह सफल हुआ । चिलचिलाती धूप से धधकती चट्टान पर ही उसने अनशन किया।
धूप को परिपूर्ण रूप से शरीर पर पड़ने दिया, देह से पसीने की धाराएँ निकलीं। चमडी चटक गई, रक्त की धारा बह निकली और तत्पश्चात् हड्डियाँ और माँस बाहर निकले, फिर भी अरणिक मुनि स्थिर रहे और उनका देहान्त हो गया। वे देवलोक में गये।
साध्वी माता ने सुना कि उसका पुत्र अरणिक अनशन करके स्वर्गगामी हुआ | पुत्र के लिए गली-गली में घूमने वाली भद्रा साध्वी को यह सुनकर सान्त्वना मिली और जिसके सुख के लिये वे तरसती थी, उस पुत्र ने सुख प्राप्त किया जिसका उन्हें हर्ष हुआ।
इस प्रकार अरणिक मुनिवर ने विनय, परिषह-सहन एवं लज्जा- इन तीनों गुणों का आदर्श जगत् के समक्ष प्रस्तुत किया तथा भद्रा माताने पुत्र का कलंकित जीवन से उद्धार करके हँसते हुए उसे अनशन करने की अनुमति प्रदान करके एक सच्ची माता का आदर्श जगत् के लिये प्रस्तुत किया । भद्रा माता एवं अरणिक मुनिवर दोनों उपदेशमाला,