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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ जब से मैंने यह गीत सुना है तब से मेरा चित्त शान्त नहीं हो रहा है । भगवन्! मैं क्या करूँ जिससे मैं उस नलिनीगुल्प में जाऊँ?' ___ 'भद्र! वह तो देवलोक है और उसके लिए तो यह देह अथवा जीवन कुछ भी काम नहीं आता। उसके लिए तप, व्रत, संयम सव कुछ करना पड़ता है।' 'भगवन्! मैं सब करने के लिए तत्पर हूँ, परन्तु क्या वह मुझे प्राप्त हो जायेगा?' 'तप से कुछ भी असाध्य नहीं है।' 'भगवन! तो मुझे दीक्षित करें और तप प्रदान करें।' 'भद्र! तेरी माता की अनुमति के बिना दीक्षा नहीं दी जा सकती।' ‘भगवन्! मैं पलभर भी नहीं रह सकता और मुझे रोका गया तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगा। ये वैभव, युवावस्था एवं राग-रंग कितने अपूर्ण एवं अनिश्चित हैं। मुझे तो किसी ने पिंजरे में डाल रखा हो ऐसा प्रतीत होता है । मैं उसमें से बाहर निकलने के लिए तरस रहा हूँ।'
प्रातः हुआ । भद्रा माता सव समझ गई। उनके नेत्रों में आँसू थे और वे कह रही थी कि 'पुत्र! ये बत्तीस स्त्रियाँ, यह हवेली, यह वैभव, यह सब किसके लिये?' । 'माता! ये भी मेरे लिए रहेंगे अथवा नहीं, इसका मुझे थोड़े ही भरोसा है?' । 'पुत्र! तू संयम की बात कर रहा है परन्तु तेरे दाँत मोम के हैं और संयम लोहे के चने हैं, क्या तुझे यह पता है?'
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रिसामरा पुत्र! तं संयम की बात कर रहा है मगर तेरे दांत मोम के हैं और संयम लोहे के चने है, क्या तुझे पता है?