Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 45
________________ ३४ थासागर भाग - १ ‘कदापि नहीं' सुनन्दा ने दृढ़ निश्चय पूर्वक कहा। मुनि ने लाभ जान कर गम्भीरता से कहा, 'तो सुनो' 'सुनन्दा! तू वारह वर्ष की थी तब तूने एक पुरुप को अपनी पत्नी को पीटते देखा और तूने निर्णय किया कि मैं कदापि विवाह नहीं करूँगी। पोडशी होने पर तूने एक युगल को प्रेम में अनुरक्त देखा और तुझे अपनी भूल समझ में आई कि स्त्री का निर्वाह पुरुष के बिना नहीं हो सकता | इतने में तुने रूपसेन को देखा | उसे तूने संकेत करके समझाया कि कौमुदी महोत्सव की रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात् राज प्रासाद की पिछली खिड़की पर मैं रस्सी की सीढी रखवाऊँगी, तुम वहाँ आना और हम शान्ति पूर्वक मिलेंगे।' _ 'सुनन्दा! तू मानती है कि कौमुदी महोत्सव के प्रथम प्रहर में रूपसेन आया, परन्तु सच्ची बात से अभी तक तु अनभिज्ञ है | तेरे महल पर जुए म हारा हुआ महालव जुआरी आया था। उसने सीढी देखकर उसे हिलाई और सीढी पर चढ़कर वह तेरे कक्ष में प्रविष्ट हो गया । इतने में सामने से तेरी माता की सखियाँ आती हुई दिखाई दी जिससे तुने अपने कक्ष के दीप बुझवा दिये और उस जुआरी को रूपसेन समझ कर तू उसके साथ भोग-विलास में लीन हो गई। ‘समय मिलने पर हम परपर वातें करंगे' - यह कह कर उसे रूपसेन मान कर तूने विदा कर दिया और वह तेरे टूटे हुए आभूषण लेकर चला गया । यह सव सत्य है अथवा नहीं?' । PHYA THAP ii ਸ਼ਲਤਾ मुनि ने लाभ जानका सुनंदा को विषय-कषाय के वशीभूत रूपसेन की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहा।

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