Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 15
________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ में मर कर कुर्कट जाति के साँप के रूप में उत्पन्न हुआ। मरुभूति की शिकायत पर दण्ड देने वाले राजा एक दिन अपने राज-प्रासाद के झरोखे में बैठे हुए थे। उस समय वर्षा ऋतु के दिन थे, आकाश में घनघोर वादल घिर रहे थे और बिखर रहे थे। यह दृश्य देख कर राजा को बोध हुआविद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य तो है जल की तरंग। पुरंदरी चाप अनंग रंग, क्या राचें जहाँ क्षण का प्रसंग? उन्हें संसार की असारता का ज्ञान हुआ । वे सोचने लगे - 'आयुष्य क्षणभंगुर है।' उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने अपने पुत्र को राज्य-सिंहासन सौंप कर आचार्य भगवन् श्री समन्तभद्राचार्य से दीक्षा अंगीकार कर ली। अनेक वर्षों तक संयम की निर्मल आराधना करके उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हो गया । दूसरा भव मरुभूति ने धर्म को जानकर, सम्यक्त्व प्राप्त किया, देशविरतिधर श्रावक बना परन्तु प्रमादवश अपनी तुच्छ भूल के फल स्वरूप वह कर्म के चक्कर में पड़ गया और आर्त्तध्यान में मर कर दण्डकारण्य में हाथी की योनि में उत्पन्न हुआ। वहाँ वह सैंकड़ों हथिनियों का स्वामी बना और इच्छानुसार वन में घूमने लगा। इतने में अवधिज्ञानी श्री अरविन्द मुनि संघ के साथ वहाँ पधारे और प्राकृतिक सौन्दर्य से सुशोभित पवित्र स्थान पर बैठ कर वे उन श्रावकों को अप्टापद तीर्थ की अद्भुत महिमा बताने लगे। इतने में वह मदोन्मत्त हाथी अपनी हधिनियों के साथ वृक्षों को उखाड़ता हुआ वहाँ आया। उसे देखकर लोग भयभीत हो गये और वहाँ से भाग खड़े हुए तथा सुरक्षित स्थानों पर चले गये, परन्तु अरविन्द मुनि हाथी को देख कर तनिक भी भयभीत नहीं हुए। अवधिज्ञान से प्रतिवोध का अवसर जान कर वे कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर हो गये। मुनिवर को देखते ही हाथी उनका संहार करने के लिये उनकी और लपका, परन्तु उनके तपोबल से उसका बल निरर्थक सिद्ध हुआ और वह पुनिवर का संहार करने में असफल रहा | आवेश कम होने पर मुनिराज की शीतल वाणी हाथी के कानों में पड़ी, 'हे वनराज! तुम अपना पूर्व भव स्मरण करो। तुम पूर्व भव में मरुभूति श्रावक थे। कर्म के चक्कर में तुम्हारी यह दशा हुई है, अतः कुछ क्षण शान्त चित्त से विचार करो।' इस प्रकार की मन मोहिनी मधुर वाणी का श्रवण करते ही हाथी विचार में पड़ गया। सोच-विचार करने पर उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया और चिन्तन करने के पश्चात पश्चाताप करता हुआ वह अविरल रुदन करने लगा। उसने उपकारी मुनिवर को वन्दन

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