Book Title: Jain Katha Sagar Part 2
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 19
________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ पाँचवा भव मरुभूति - बारहवें देवलोक में। कमठ - छठी नरक में। छठा भव मरुभूति - वज्रनाभ राजा। कमठ - कुरंगक भील। जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में शुभंकश नामक नगरी में राजा वज्रवीर्य का शासन था। उसकी लक्ष्मीवती नामक रानी की कुक्षि से किरणवेग विद्याधर का जीव बारहवें देवलोक का आयुष्य पूर्ण करके पुत्र के रुप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम वज्रनाभ रखा गया। राजकुमार समस्त कलाओं में दक्ष होकर सर्व-गुण-सम्पन्न हो गया | एक वार वहाँ भगवान धर्मवर चक्रवर्ती क्षेमंकर नामक तीर्थंकर का आगमन हुआ। राजा वज्रनाभ प्रभु की देशना श्रवण करने के लिए गया। उस समय भगवान ने उसे जिनेश्वर प्रभु की वन्दना, पूजा, स्वाध्याय, ध्यान, विनय एवं सेवा का आचरण करने का उपदेश दिया। भगवान की वाणी श्रवण करके राजा वज्रनाभ को वैराग्य हो गया, जिससे उसने अपने पुत्र चक्रायुध को राज्य सौंप दिया और भगवान के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। समस्त शास्त्रों का अध्ययन करके वे अनेक सिद्धियाँ प्राप्त करके भगवान की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगे। विहार करते-करते क्रमशः वे सुकच्छ नामक देश में ज्वलनगिरि पर्वत की तलहटी में प्रतिमा धारण करके रहे। इस ओर एक योजन की देह वाला साँप मर कर छठी नरक में भयंकर कष्ट सहन करके वहाँ से एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय में अनेकभव करके मरणोपरान्त इसी पर्वत की तलहटी के एक गाँव में उसने एक भील के घर पुत्र के रूप में जन्म लिया, जिसका नाम कुरंगक रखा गया ! उक्त भील-पुत्र अत्यन्त हिंसक था। एक दिन वह शिकार करता हुआ प्रतिमाधारी एवं कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित मुनि वज्रनाभ के समीप पहुँच गया। उन्हें देख कर पूर्व भव की शत्रुता के कारण उसने उन पर तीक्ष्ण विषैले तीरों की वृष्टि करके उनका वध कर दिया । मुनिवर शुभ ध्यान में स्वर्गगामी होकर प्रैवेयक देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए और कुरंगक भील अनेक भयंकर कप्ट भोग कर नाना प्रकार की व्याधियों से ग्रस्त होकर घोर वेदना के कारण रौद्रध्यान में मर कर सातवीं नरक में गया। र ला।

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