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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ भूमि में निवास करने वाले देवताओं ने भगवान की नौ हाथ की मणि-माणिक की मूर्ति बनाकर वहाँ स्थापित की, प्रतिष्ठित की | तब से वह स्थान कलि-कुण्ड तीर्थ के नाम से विख्यात हुआ | इस ओर वह हाथी मर कर व्यन्तर बना और उस तीर्ध का रक्षक बना।
वहाँ से विहार करके भगवान कौस्तुभ नामक वन में कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे, वहा उनके सिर पर सूर्य की तीव्र किरणें पड़ती देख कर धरणेन्द्र ने तीन दिन और तीन रात्रि तक उनके सिर पर छत्र रखा । इस कारण समीपस्थ नगरी का नाम अहिछत्रा' प्रसिद्ध हुआ | जब भगवान आश्रम पद उद्यान में आये तव मेघमाली देव ने शत्रुताचश प्रभु पर उपसर्ग किये, फिर भी वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे ध्यान में स्थिर रहे | वहाँ प्रलयकाल सदृश भयंकर जल वृप्टि की गई। जिससे भगवान की नासिका तक पानी पहुँच गया। परमात्मा पर उपसर्ग होते जान कर धरणेन्द्र शीघ्र वहाँ आया
और भगवान को अपने कंधे पर उठा कर मेघमाली को अच्छी तरह लताडा, जिससे मेघमाली लज्जित हो गया और भगवान से क्षमा याचना करते हुए उसने अपने कदाचरण की निन्दा की और वह अपने स्थान पर चला गया। तत्पश्चात् धरणेन्द्र भी अपने स्थान पर चला गया। दीक्षा के दिन से चौरासीवे दिन विशाखा नक्षत्र में चन्द्रमा का योग होने पर घातकी वृक्ष-तले अट्ठम की तपस्या युक्त देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
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रिसोमारा
मेघमात्नीने प्रभु पार्श्वनाथ पर भारी उपसर्ग किए मगर प्रभु चलायमान नहीं हुए।