Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ अङ्क ४-१०] एक विद्वान्के कुछ विचार । कालके जीव होते हैं। उन्हें भविष्य काल सोल्जरों (फौजी सिपाहियों) और डरावना दिखता है। लुटेरोंमें केवल इतना ही फर्क है कि ___ x x x सोल्जरोंको सरकारी वेतन मिलता है, ईसाई धर्ममें कहा है कि ईश्वरने छः पर लुटेरोको नहीं मिलता। दिन तक सृष्टिकी रचना की और सातवें + + + दिन विश्राम किया। यह सातवाँ दिन जब तुम खाकी पोशाक पहनकर बहुत लम्बा हो गया है। ईश्वरके श्राराम हत्या करते हो तब तुम्हारी प्रशंसा होती करनेसे पृथ्वीको नाकों दम आ रहा है। है। परन्तु क्या बढ़िया पोशाक पहननेसे ही हत्या बढ़िया हो जाती है ? मारने में तू अपने शत्रुओंसे प्रेम कर। इससे तो वीरता हो ही नहीं सकती। . तेरा कोई शत्रु रहेगा ही नहीं। शत्रुसे xx. xx प्रेम करना ही उसे हटा देना है। अपने चाहे एक मनुष्य की हत्या हो चाहे धिक्कारनेवालेपर यदि तू प्रेमकी वर्षा एक जातिकी या सेनाकी हत्या हो, सब करता रहेगा, तो वह तेरा बिगाड़ ही एक समान निन्ध हैं। . . क्या सकेगा? x x x . इस समय जंगली और असभ्य राष्ट्र जो वास्तविक शक्तिशाली हैं, वे ही वे ही हैं जिनके अस्त्र शस्त्र अन्तिमसे दूसरों पर हाथ न उठानेका बल दिखला अन्तिम आविष्कारों के आधारपर बने सकते हैं। निन्दा करनेवालोंको तू निन्दा ही विवेक जब अपना राजपाट छोड़ करने दे। उन्हें उत्तर मत दे । देता है, तब वह श्रद्धा बन जाता है। जो मनुष्य तेरे विरूद्ध झूठी साक्षी ___जो निर्धन हैं वे धन्य हैं; क्योंकि वे देते हैं, उनके लिए तू अपने मुँहसे एक त्रिभुवन के स्वामी हैं। शब्द भी मत निकाल । शायद इसीसे उनका उद्धार हो जाय । ____ जो निर्लोभ हो गये हैं, वे धन्य हैं; क्योंकि दुनियाँ को जिन जिन चीजों पापकी निन्दा करनेको निकलना उस का लोभ होता है, वे सब उन्हें अनायास पापसे भी हलका बनना है। मिल जायेंगी। धुद्धि परीक्षण करने बैठती है, परन्तु दुखिया ही वास्तविक सुखी हैं; विवेक निरीक्षणसे ही राजी रहता है। क्योंकि वास्तविक सुखका भाण्डार उनके अन्तरमें है। जो दोष हममें हैं, अपने हाथसे उनका ____ xxxx न्याय होना कठिन है । जो दोष हममें .. धन्य है रंकोंको; क्योंकि बली लोग नहीं हैं, उन्हें दूसरोंकी आँख देख ही कैसे आपस में लड़ मरेंगे और तब रंक ही अकेले सकती है ? तिरंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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