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भक -१०] . . एक गृहसका ब्रह्मचर्वाणुव्रत।
३१ (४)
(८) ... देव तुझे निर्जीव देह में
जग की प्रलयङ्करी घृणा से मेरी मानो पाया प्राण । ___जीवन ऊब गया है नाथ ! समझा त्राण मिलेगा . . चाहे भासू पोछ या कि तुझसे होगा ही जीवन कल्याण ।
ठुकरा दे है चरणों में माथ । खोल खोल सत्वर खुलने दे
मुझको अङ्गीकार वही है अब अपनी कुटीर का द्वार ।
जो कुछ हो तुझको स्वीकार। तेरे चरण पकड़ पा लेने
इस जीवनमें किन्तु न दे मुझको विपत्तिका पार।।
छोडूंगा अप्राप्य प्राप्त तव द्वार ॥
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धूलि भरे पग हैं मैली हो
जावेगी यह भव्य कुटीर । डरना मत धो डालेगा
उसको मेरी आँखोंका नीर। निकल निकल मेरे पैरोंसे
इधर उधर फैलेंगे शुल । शीघ्र वरुणियोंसे बुहार
दूंगा उघार. पट हो अनुकूल ॥
जैसे तैसे द्वार खुला तो
फिर अब हे भवसागर सेतु। मौन हो रहा तू इतनी
निठुराई है, बतला किस हेतु ? . पापी हूँ तो भला पापियों
का क्या नहीं हुआ उद्धार । अगर न पापी होता तो फिरमाता ही क्यों तेरे द्वार?
(७) निस्सन्देह पापियों से
करता है घृणासकल संसार । तो क्या तू भी सँसारी सा .
है बानी या सविकार ? - नहीं नहीं, तू दयाधाम है,
पूर्णकाम है, है शिवराज । स्वीय विरद या बाँह गहे
की तो क्या नहीं रखेगा लाज?
एक गृहस्थका ब्रह्मचर्याणुव्रत।
एक गृहस्थ पंचाणुव्रतधारी है और उसके स्वस्त्री मौजूद है। तिल पर भी उसने एक और रनेली स्त्री (अपरि गृहीता इत्वरिका) भी अपने पास रख छोड़ी है । उसके इस आचरणके कारण किसीने उसको टोका और पूछा तो वह कहता है कि-"मैं यह व्रत श्रीसोमदेव सरिके अभिप्रायानुरूप पाल सकता हूँ। उनका अभिप्रायसूचक वह श्लोक इस प्रकार हैवधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा
सर्वनान्यत्र तज्जने। मातास्वसातनूजेति _मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ॥१॥ (यशस्तिलक उ० ख० उपासकाध्ययन
प्रकरण पृ० ३५९) अर्थात्-बधू माने स्वस्त्री और वित्तस्त्री माने वेश्या या रजेली स्त्री, इनके सिवा शेष त्रियों पर माता, बहन और छोकरी, पुत्री ऐसी भावना रखनी, यह गृहस्थका ब्रह्मचर्याणुव्रत है।" ।
इस प्रकार वह श्रीसोमदेव सूरिका आधार दिखाता है । सो उसका वह व्रत
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