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विविध विषय।
३२१ होनी चाहिए । आशा है सोनोजी अब है। कोई कोई तो इस पत्र के लिए और इसपर ज़रूर ध्यान देंगे।
इसके सम्पादक आदि कतिपय लेखकोंके
. वास्ते ऐसी ऐसी उपमात्री तथा लोको२-'सिद्धान्त' में सिद्धान्त
क्तियों का प्रयोग करने लगे हैं किविरुद्ध बातें।
"गाडर पानी ऊनको बैठी चरे कपास," 'जैनसिद्धान्त' नामका एक मासिक. "श्राप डुबंते पांडे ले डूबे यजमान ।" हमें पत्र अभी साल भरसे निकलना प्रारम्भ लोगोंकी इस घबराहटको देखकर कवि. हुश्रा है। यह दिगम्बर जैनशास्त्रि-परिषद- का एक वाक्य याद आता है जो ऐसे ही का मुखपत्र है और इसके सम्पादक घबराये हुए प्रेमियों को लक्ष्य करके कहा हैं पं० वंशीधरजी शास्त्री। लोग समझते गया हैथे कि इस पत्र में जैन सिद्धान्तके रहस्यका इब्तदाए इश्क है रोता है क्या ? उद्घाटन करनेवाली कुछ मर्मकी बातें आगे आगे देख तो होता है क्या ? प्रकाशित हुआ करेंगी और उनके द्वारा कितने ही लेख इस पत्रमें ऐसे बेहूदा साधारण जनताका जैनसिद्धान्त-विषयक और अहंकार तथा कषायसे भरे हुए अज्ञान दूर होगा। परन्तु ऐसा कुछ भी निकले हैं कि जिनमें सभ्यता और शिष्टता न होनेसे उनकी वह अाशा अब निराशामें का बिलकुल ही खून किया गया है और परिणत होती जाती है। आजतक इस उन्हें पढ़कर कोई भी समझदार व्यक्तिपत्र में ऐसा एक भी लेख प्रकाशित नहीं विवेकी पुरुष-निश्चयपूर्वक ग्रह नहीं हुआ जिसके द्वारा जैनधर्मके किसी भी कह सकता कि उनके लेखकके हृदय में सिद्धान्तपर कोई गहरा प्रकाश डाला सद्भावका भी कुछ अंश विद्यमान है । गया हो । प्रत्युत् इसके, अब इसमें कितनी प्रायः कटु शब्दों का प्रयोग ही इस पत्रके ही बातें जैन सिद्धन्तोंके विरुद्ध निकल अधिकांश संपादकीय लेखों का युक्तिबल रही हैं-असत्यको सत्य और सत्यको होता है। पत्रकी लेखन और प्रतिपादन असत्य सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है- शैली श्राम तौरसे अच्छी नहीं है और योनिपूजन और कुदेव पूजनादि जैसे संपादकीय कर्तव्यों के पालनसे तो यह निषिद्ध विषयोतकका विधान होने लगा पत्र अभी कोसों दूर है। यदि इस पत्रकी है। लक्षणोंसे ऐसा मालूम होता है कि यही हालत रही तो इसमें संदेह नहीं कि यह पत्र फिरसे भट्टारकी शासनको प्रव- कितने ही
कितने ही विद्वानों को शास्त्रिपरिषदुसे र्तित करना चाहता है और तेरह पंथियोंके अलग होना पडेगा अथवा वह परिषद विचारोंपर बिलकुल ही पानी फेर देने की ही टूट जायगी जिसका यह मुखपत्र है। फिकरमें है। यही वजह है कि यह क्योंकि अब ज़माना भट्टारकी शासनका त्रिवर्णाचारों जैसे आधुनिक ग्रन्थों की नहीं है और न बलपूर्वक कोई असत् बात हर एक बातको, चाहे वह कितनी भी किसीके गले में उतारी जा सकती है। अनुचित क्यों न हो, सत्य सिद्ध करने की अंधाधुंध प्रवृत्तियाँ तथा श्राज्ञाएँ अब धुन में मस्त है । ऐसी हालत देखकर, नहीं चल सकती, और न ऐसे साहित्यके कितने ही विद्वान् लोग भी अब इस पत्र- पढ़ने में सत्पुरुषों की रुचि हो सकती है की रीति-नीतिसे घबरा उठे हैं और उन्होंने इसके विरुद्ध लिखना शुरू किया . इश्कका अभी प्रारंभ ही है।
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