Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 64
________________ जैनहितैषी।" [ भाग १५ ही नहीं, समस्त भारतके पढ़े लिखे प्रेरणा तथा प्रार्थना है। पत्रिकाके कुछ जिज्ञासुओंके लिए भी हितैषी है।" विचार यद्यपि मुझसे भिन्न हैं, पर अधि १६*-श्रीयुतपं० तात्या नेमिनाथजी कांश एकमत हैं। इससे मैं इसका ज्यादा पांगल, सम्पादक 'सरसवाय ग्रन्थ- प्रेमी हूँ । अतएव भापका और सम्पादक माला' (मराठी), रविवार पेठ, पूना सिटी। महोदयका परिश्रम सराहनीय है। ता० १२-५-२१ "मापका मार्चके अंकका 'तीर्थों के झगड़ोंका रहस्य' यह लेख पढ़ा बहोत तेरा द्वार। हि संशोधन व ऐतिहासिक श्रमतया आप ने लिखा है-जो पढनेसे अन्तः (ले०---श्रीषुत भगवन्त गणपति गोयलीय, बम्बई । ) करण प्रसन्न और सन्तुष्ट होता (है). आपके ऐतिहासिक समालोचनका मैं जीवनसे जी-घबराया था, अभिनन्दन करता हूँ-आपका यह लेख ढोते ढोते उसका भार । पढ़ने से मुझे ऐतिहासिक क्षेत्रमें फिर हा भलाइयोंने बुराइयोंसे भी काम करनेकी प्रेरणा होती है। आपके जीवनमें मानी हार । जैनहितैषीके बन सके उतने सब अंक सारी नई नई पाशाएँ पढ़ने के लिए एक बार र. ह. के. व्ही. उड़ी कि जैसे उड़े कपूर । पी. से भेजनेकी कृपा करें। जीवनाब्धि की तरल तरंगों ने . हमारा अन्ध जैनसमाज आपका ला पटका मुझको दूर ॥ द्वेषबुद्धीसे कदर नहीं करता, लेकिन आपकी योग्यता डा. भांडारकर जैसे (२) विद्वानोंसे भी ऐतिहासिक वाडयमें बनस्थली में जब व्याकुल हो उच्च श्रेणी की है। परमात्मा श्रापके कार्य ढूँढ़ रहा था अपनी राह । को चिरंजीव तथा प्रभवशाली करें।" तरुनो-टीलोंसे टकरा कर १२*-श्रीयुत ला० दशरथलालजी, खींच रहा था लम्बी माह । उपमन्त्री 'जैनमित्रमण्डल' वाचनालय नभमें घटा घिरी थी, बनमें विभाग, सिवनी (सी. पी.)। अंधकारका था विस्तार । " ता०६-०-२१ मेरे पदरव मेरी श्वासे "आपके हितैषी' पत्रके दर्शनोंकी डरवाती थीं कर फूत्कार ॥ बड़ी उत्सुकता थी। आज पाकर प्रसन्न (३) हुआ। मुझे साप्ताहिकमें जैनमित्र और यम आमंत्रण माया, मैंने मासिकमें मापके जैनहितैषीका अभिमान परवश किया उसे स्वीकार। है लेकिन पूर्ववत् न मालूम गल्प, राज. तेरा ध्यान किया जब नीति, हिन्दी साहित्य इ. पर अब लेख खण्डित होने कोथा जीवन तार। क्यों नहीं पाते जिसके लिए मेरी आपले देखो वहीं हो उठा सत्वर तथा अचानक दीप प्रकाश । * ११-१२ नम्बरके दोनों विचार पं० नाथूरामजी दौड़ा पाश-मुक्त-मृग जैसा प्रेमीको लिखे हुए पत्रों में प्रकट किये गये है। भा पावा वह तेरा वार॥ ..! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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