Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 62
________________ २१६ उनके इस कथनमें ११ वीं प्रतिमा के दोनों भेदोंका, चाहे वे पहले से हो या पीछेसे 'कल्पित किये गये हो, समावेश हो जाता है । और इसलिए यह कहना चाहिए कि श्रागममें उक्त दोनों प्रकारके श्रावकों के लिए 'क्षल्लक' संज्ञाका समान रूप से विधान पाया जाता है । जैनहितैषीः । जो लोग प्रथम भेदको ही क्षुल्लक मानते हैं और दूसरेको क्षुल्लक स्वीकार नहीं करते, बल्कि उसके लिए 'ऐलक' नामकी एक नई संज्ञाका व्यवहार करते हैं, उनका यह श्राचरण जैनागमके प्रतिकूल है । A यहाँ पर हम इतना और बतला देना चाहते हैं कि धर्मसंग्रहश्रावकाचार वि०. संवत् १५४१ में बनकर समाप्त हुआ है और उस वक 'दीपद' नामका उक्त क्षुल्लक मौजूद था। चूँकि स्वरूपकी दृष्टिसे इस तल्लक और आजकल के 'ऐलक' में परस्पर कोई भेद नहीं पाया जाता, इसलिए धर्मसंग्रहभावकाचार के उपर्युक्त उल्लेख से यह नतीजा निकलता है कि जिसे हम आज ऐलक कहते हैं, उसे विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में भी 'क्षल्लक' कहते थे । १५ - अब देखना यह है कि पिछले साहित्य में 'ऐलक' नामकी उपलब्धि कहीं से होती है या कि नहीं। संस्कृतप्राकृत ग्रंथोंको छोड़कर क्या ऐसे दूसरे कोई ग्रंथ मौजूद हैं जिनमें ऐलक पदका उल्लेख पाया जाता है ? उत्तर में कहना होगा कि हाँ, हिन्दी भाषाके कुछ ग्रंथ ऐसे ज़रूर हैं जिनमें ऐलक पदका उल्लेख मिलता है । इन ग्रंथोंमें सबसे पुराना ग्रंथ जो हमें उपलब्ध हुआ है, वह पण्डित भूधरदालजीका 'पार्श्वपुराण' है। इस ग्रंथ में ११ वीं प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकार से वर्णन किया है Jain Education International भाव १५ अब एकादशमी सुनो, उत्तम प्रतिमा सोय । ताके भेद सिधान्तमें, छुल्लक ऐलक दोय ॥१९४॥ जो गुरु निकट जाय व्रत गहै । घर तज मठमंडप में रहै ॥ एक वसन तन पीछी साथ । कटि कौपीन कमंडल हाथ || १९५ ।। भिक्षा भाजन राखै पास । चारो परब करै उपवास ॥ ले उदंड भोजन निर्दोष । लाभ अलाभ राग ना रोष ॥ १९६ ॥ उचित काल उतरावै केश । डढी मोछ न राखे लेश || तपविधान आगम अभ्यास । शक्ति समान करे गुरु पास ॥ १९७ ॥ यह छुल्लक श्रावक की रीत । दूजो ऐलक अधिक पुनीत ॥ जाके एक कमर कौपीन । हाथ कमंडल पीछी लीन ॥ १९८ ॥ विधिसे खड़ा लेहि आहार । पानिपात्र आगम अनुसार ॥ करै केश लुंचन अति धीर । शीतघाम तन सहै शरीर ॥ १९९॥ पान पात्र आहार, करै जलांजलि जोड़ मुनि । खड़ा रहै तिहि बार, भक्तिरहित भोजन तजै ॥ २००॥ एक हाथ पै प्रास घर, एक हाथ से लेय । श्रावक के घर आयके, 'ऐलक अशन करेय ॥ २०१ || For Personal & Private Use Only अधिकार ९ वाँ । www.jainelibrary.org

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