Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 60
________________ ३१४ दंसण-वय- सामाइय-पोसहपडिमा अबम्भ सच्चित्त । आरंभ-पेस- उद्दिट्ठ जैनहितैषी । वज्जए समणभूए य ॥ ११ ॥ उपासकदशा * १४ - पुरुषार्थ सिद्ध्यपाय, पद्मनंदि भावकाचार, पूज्यपाद उपासकाचार रत्नमाला, पंवाध्यायी ( उपलब्ध श्रंश ), तत्वार्थ सूत्र, तत्वार्थ सार, सवार्थ सिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, धर्म शर्माभ्युदय, आदिक बहुतसे ग्रंथों में ११ प्रति माओका कथन ही नहीं है और न उनमें किसी दूसरी तरह पर 'ऐलक' नामका उल्लेख पाया जाता है। गोम्मटसारके संयम मार्गणाधिकार में ११ प्रतिमाओं के नाम ज़रूर हैं और उनकी सूचक वही गाथा दी है जो भगवत्कुंदकुंदके चारितपाहुड ग्रंथ में पाई जाती है । परन्तु उन प्रतिमाओंका वहाँ कोई स्वरूप-निर्देश नहीं किया गया, इसलिए वहाँसे भी इस विषयमें कोई सहायता नहीं मिलती । इस तरह पर संस्कृत- प्राकृतके प्रायः इन सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध ग्रंथोंको टटोलने पर जिनमें प्रतिमाओं के कथनकी संभावना थी, हमें किसी भी ग्रंथमें 'ऐलक' नामकी उपलब्धि नहीं हुई। हाँ, 'क्षुल्लक' पदवीका उल्लेख बहुत से ग्रंथोंमें ज़रूर पाया जाता है । उदाहरण के लिए यहाँ उनमें से कुछका परिचय दे देना काफी होगा (क) भी जिनसेनाचार्य प्रणीत 'हरिवंशपुराण' में, जो कि शक सं० ७०५ में बनकर समाप्त हुआ है, विष्णुकुमार मुनि और प्रद्युम्नकी कथाओंमें चुल्लक पदवीधारक श्रावकका उल्लेख है + • देखो होर्नले (A. F. Rudolf Hoernle ) का संस्करण, सन् १८८५ का छपा हुआ, पृ० १६७ । + ऐसा पं० दौलतरामजीकी भाषावचनिकासे मालूम होता है। मूल ग्रंथ हमारे सामने नहीं है । Jain Education International [ भाग -१५ (ख) विष्णुकुमार मुनिकी कथामें, प्रभाचंद्राचार्य और ब्रह्मनेमिदत्तने भी क्षुल्लक पदका उल्लेख किया है और उस क्षल्लक श्रावकका नाम, जो विष्णुकुमार मुनिके पास श्रकम्पनाचार्यादि मुनियों के उपसर्गका समाचार लेकर गया था, 'पुष्पदन्त' दिया है । (ग) विक्रमकी १० वीं शताब्दीके विद्वान् श्रीदेवसेनाचार्य, अपने 'दर्शनसार' ग्रंथ में, कुमारसेन द्वारा वि० सं० ७५३ में काष्ठासंघकी उत्पत्ति बतलाते हुए, लिखते हैं कि कुमारसेनने 'ज्ञल्लक' लोगोंके लिए 'वीरचर्या का विधान किया है। इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लय लोयस्स वरिचारयत्तं । (पूरा प्रकरण देखो - गाथा नं० ३३ से ३९ तक) दर्शनसारके इस प्रकरण से साफ़ जाहिर है कि वि. संवत ७५३ से भी पहलेसे क्षुल्लक पदका अस्तित्व है और उस समय मूल संघ में क्षुल्लकोंके लिए वीरचर्याका निषेध थो । (घ) यशस्तिलकमें श्रीसोमदेव सूरि भी 'क्षुल्लक' पदका उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि तुल्ल कोंके लिए परस्पर 'इच्छाकार' वचनके व्यवहारका विधान है । यथा अर्हद्रूपे नमोस्तु स्याद्द्विरतौ विनय क्रिया । अन्योन्य क्षुल्लकेचाई मिच्छा कारवचः सदा ॥ आश्वास ८ पृ० ४०७ । * देखो उक्त विद्वानोंके बनाये हुए 'आराधना सार कथा' और 'आराधना कथा कोश' नामके ग्रंथ । ब्रह्मनेमिदनके आराधना कथा कोशका एक पद्य इस प्रकार हैइति प्राह तदाकर्ण्य पृष्ठोऽसौ क्षुल्लकेन च । पुष्पदन्तेन भो देव कुत्र केषां गुरुर्जगौ ॥६२॥ + यह 'वीरचर्या' वही है जिसका कितने ही श्राचार्यों तथा विद्वानोंने ११ वीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावकके लिए निषेध किया है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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