Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ भर-१०]. ऐलक-पद-कल्पना। ३१३ तद्धानौ च वदन्त्येता तथा विद्वानोंके ग्रंथोसे, जिनका ऊपर न्येकादश यथाक्रमं । बल्लेख किया गया है, नहीं मिलता। यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उहिष्टअवधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थितः। . . त्यागी ही नहीं बतलाया, बल्कि अनुमान्य ताकी हानि , करनेवाला अथवा उसका सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता त्यागी ठहराया है जिसका अभिप्राय, ज्ञानदर्शनभावनाः ।।* पूर्वाचार्योंके कथनानुसार, दसवी प्रतिमा आश्वास नं० ८। (अनुमति त्याग) के विषयसे हो सकता इन पद्योंमें १ मूलव्रत, २ व्रतानि, ३ है। दसवीं प्रतिमावाले को यहाँ भोजनकी भर्चा, ४ पर्वकर्म, ५ अकृषि क्रिया, ६ मात्राका घटानेवाला लिखा है; परिग्रहदिवाब्रह्म, ७ नवविध ब्रह्म, - सचित्त त्यागसे पहले 'प्रारम्भ त्याग' नामकी विवजन, पारग्रह पारत्याग, १० भुक्ति- प्रतिमाका कोई उल्लेख नहीं: संचित्त मात्राहानि और ११ अनुमान्यताहानि, त्याग' नामकी प्रतिमाको पाँचवीं प्रतिमा ऐसी ग्यारह प्रतिमाओंके नाम दिये हैं करार न देकर पाठवीं प्रतिमा करार और उनका यही क्रम निर्दिष्ट किया है। दिया है; 'प्रकृषि क्रिया' नामकी एक नई साथ ही यह भी बतलाया है कि इन प्रतिमा पाँच नम्बर पर दी है और सभी प्रतिमाओं में शानदर्शनकी भावनाएँ तीसरी प्रतिमा 'सामायिक' की जगह समान हैं और पूर्व पूर्व प्रतस्थित (प्रति- 'अर्चा (पूजा) लिखी है। इससे पाठक माधारी) को चाहिए कि वह भवधिवत. सोमदेव सूरिके प्रतिमाविषयक विभिन को भारोहण करे । परन्तु अवधिवतको शासनका बहुत कुछ अनुभव कर सकते भारोहण करना क्या है, यह कुछ समझमें हैं । यह शासन प्रतिमाओंके नाम, विषय नहीं आता। संभव है कि जिस प्रकार और उनके क्रमकी अपेक्षा श्वेताम्बरोके श्वेताम्बरोंके यहाँ पहली प्रतिमा एक शासनसे भी भिन्न है। श्वेताम्बर सम्प्रमहीने तक, दूसरी दो महीने तक और दायमें दसवीं प्रतिमावालेको 'उहिष्टतीसरी तीन महीने तक, इस प्रकार त्यागी माना है और ग्यारहवीं प्रतिमाक्रमशः भवधिको बढ़ाते हुए अगली की संज्ञा 'श्रमणभूत' दी है। इसके सिवा अगली प्रतिमाभोके पालनका विधान है, उन्होंने ५वी प्रतिमा'कायोत्सर्गः (प्रतिमा), उसी तरहका अभिप्राय यहाँ 'अवधिवत' ६ ठी अब्रह्मवर्जन, ७ वीं सचित्ताहार. से सोमदेव सूरिका हो; अथवा इसका वर्जन, - वीं स्वयमारम्भवर्जन, और कुछ दूसरा ही भाशय हो । परन्तु कुछ हवी प्रतिमा भृतकप्रेष्यारम्भवर्जन मानी भी हो. इसमें संदेह नहीं कि प्रतिमाओका है। बाकी दर्शन, व्रत, सामायिक और यह सब कथन दूसरे दिगम्बर आचायो पोषध नामक पहली चार प्रतिमाएँ उनके . यहाँ भी उन्हीं नामोंके साथ पाई जाती हैं देखो यशस्तिलक उत्तरखण्ड १० ४१०, निर्णय जिन नामोसेभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यने अपने . सागर प्रेस, बम्बई द्वारा सन् १९०३ का छपा हुआ। 'चारित्तपाहुड' ग्रन्थमें उनका उल्लेख . जातिma, n : +देखो योगशास्त्रकी गुजराती टीका, निर्णयसागर किया है, यथाप्रेस बम्बईमें संवत् १९५५ की छपी हुई, पृष्ठ ३३७; और "उपासकदशा' का अभयदेव कृत विवरण, होनले साहब- - का, सन् १८८५ में छपाया हुआ. . २६ से २६ । . - देखो 'उपासक दशा का अभय देवकृत विवरण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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