Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ ऐलक-पदः कल्पना। ३०३ स्वरूपसे समावेश हो जाता है, परन्तु 'उद्दिष्टाहारविरत' न रखकर 'उद्दिष्ट 'नवकोटि विशुद्ध और 'याचना रहित विनिवत्ता रक्खा गया है। भिनाशन ये दो विशेषण ऐसे हैं, जो ख़ास तौरसे छोड़कर और सब विशेषण भी यहाँ उल्लेख किये जानेपर ही समझमें आ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षासे अधिक निर्दिष्ट सकते हैं। और इसलिए इन दो विशे- हुए हैं । परन्तु उनमें एक वस्त्रधारी होना षणोंका यहाँ खास तौरसे उल्लेख हुआ और रात्रिप्रतिमादि तपश्चरणमें उद्यमी है, यह कहना होगा । साथ ही, इस रहना, ये दो विशेषण स्वामिसमन्तभद्र प्रतिमाके धारकका 'उद्दिष्टाहार विरत' प्रतिपादित 'चेलखंडधर' और 'तपस्यन्। नामसे उल्लेख किया गया है और उसके विशेषणों के साथ मिलते जुलते हैं। हाँ, लिए खण्डवस्त्र या एक-दो वस्त्र रखने इतना ज़रूर है कि समन्तभद्र स्वामीने प्रादिका कोई नियम नहीं दिया गया। जिस तपश्चरणका सामान्य रूपसे उल्लेख ५--चारित्रसार ग्रन्थमें, श्रीमच्चा- किया है, उसके यहाँ दो भेद किये गये मुण्डराय, जो कि वि० की ११वीं शताब्दी हैं--एक रात्रिप्रतिमादिरूप और दूसरा के विद्वान् है, इस प्रतिमाके धारकका आतापनादि योगरूप । पहलेका विधान 'उहिष्टविनिवृत्त' नामसे उल्लेख करते हैं और दूसरेका निषेध किया गया है। एक और उसका स्वरूप इस प्रकार देते हैं-- बात यहाँ और भी बतला देने के योग्य है। . "उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोदिष्टपिंडोपधिशयः और वह यह है कि इतने अधिक विशेनवसनादेर्विरत: सन्नेकशाटकघरो भिक्षा- षणोंका प्रयोग करनेपर भी भिक्षा भोजनशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रि- के साथ स्वामिकार्तिकेयके 'याचनारहित' विशेषणका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया प्रतिमादितपः समुद्यत आतापनादियोग है। सम्भव है कि ग्रन्थकर्ताको शायद रहितो भवति ।" इस प्रतिमाधारीके लिए यह विशेषण इष्ट अर्थात्--जो अपने निमित्त तय्यार न हो। आगे भी कितने ही प्राचार्यों तथा किये हुए भोजन, उपधि, शयन और विद्वानोको यह विशेषण इष्ट नहीं रहा है, वस्त्रादिकसे विरक्त रहता है-उन्हें ग्रहण और उन्होंने साफ तौरसे इस प्रतिमानहीं करता,--एक वस्त्र रखता है, भिक्षा धारी के लिए याचनाका विधान किया है। भोजन करता है, कर-पात्रमें आहार लेता है, बैठकर भोजन करता है, रात्रिप्रति- ६-श्रीअमितगति आचार्य अपने मादि तपश्चरणमें उद्यमी रहता है और 'सुभाषितरत्नसंदोह' नामक ग्रन्थमे, जो आतापनादि योगसे वर्जित होता है, वह गसे वर्मित होता है वह कि वि० सं १०५० में बनकर समाप्त हुआ 'उहिष्ट विनिवृत्त' नामका श्रावक कह प्रावक कह है, लिखते हैं कि-- लाता है। स्वनिमित्तं विधायन कारितोनुमतः कृतः । ___ इस स्वरूपमें, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा. • की अपेक्षा, उद्दिष्टाहारके साथ १ उद्दिष्ठ " नाहारो गृह्यते पुंसात्यत्तोद्दिष्टः स भण्यते ८३ उपधि, २ उद्दिष्ट शयन और ३ उद्दिष्ट अर्थात्--जो मनुष्य मन-वचन-काय. धनादिकके त्यागका विधान अधिक द्वारा अपने निमित्त किये हुए, कराये हुए किया गया है और शायद इसीसे या अनुमोदन किये हुए भोजनको ग्रहण इस पदवी (प्रतिमा) धारकका नाम नहीं करता है (नवकोटि विशुद्ध भोजन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72