Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 55
________________ प्रक -१०] ऐलक-पद-कल्पना । . प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां जगहं कुछ विशेष पाया जाता है; जैसा कि यावत्स्वोदरपूरणीम् । (२) उद्दिष्ट पिंडके साथमें आपने 'अपि' लभेतप्रासु यत्राम्भस्त शब्दको छोड़ दिया है, जिससे ऐसा त्रसंशोध्य तां चरेत् ।.४३॥ मालूम होता है कि शायद आपको उहिष्ट उपधि-शयनासनादिक का त्याग इष्ट नहीं था; (२) विकल्पसे मौनपूर्वक भिक्षाके यस्त्वेक भिक्षानियमो कथनको न दे कर उसके स्थानमें वही गत्वाऽद्यादनुमुन्यसौ। वसुनन्दी जैसा कथन रक्खा है. और (३) भुक्त्यनुभावे पुनःकुर्यो द्वितीयोत्कृष्ट श्रावकके लिए रक्त कौपीनदुपवासमवश्यकम् ॥४६॥ का विधान किया है। इस ग्रंथके सिर्फ वसेन्मुनिवने नित्यं दो चार पद्य नमूने के तौर पर नीचे दिये ___शुश्रूषते गुरूंश्चरेत् । जाते हैंतपोद्विधापि.दशधा दशधा धर्मास्त्रसंभिन्न . वैय्यावृत्यं विशेषतः ॥४७॥ __ श्वसन्मोहमृगाधिपः । तद्वद्वितीय; किन्त्वार्य पिंडमुहिष्ट मुज्झन्स्या. संज्ञो लंचत्यसौकचान् । दुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः ॥५५॥. कौपीनमात्रयुग्धत्ते उत्कृष्टोऽसौ द्विधाज्ञयः यातवत्प्रतिलेखनम् ॥४८॥ - प्रथमोद्वितीयस्तथा। स्वपाणिपात्र एवात्ति प्रथमस्य स्वरूपंतु संशोध्यान्येन योजितम् । __ वच्म्यहं त्वं निशामय ॥६०।। इच्छाकार समाचार मिथः सर्वेतुकुर्वते ।।४९॥ . श्वेतैकपटकौपीनो श्रावको वीरचर्याहः वस्त्रादि प्रतिलेखनः । __ प्रतिमातापनादिषु । कर्ता वा क्षुरेणासौ स्यानाधिकारी सिद्धान्त __ कारयेत्केशमुंडनम् ॥६॥ रहस्या ध्ययनेऽपिच ॥५०॥ लाभालाभे ततस्तुल्यो सागा० अ०७। निर्गत्यैत्यान्यमंदिरम् । १०-धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें*, पं० पात्रं प्रदर्य मौनेन मेधावीने जो कि विक्रमकी १६ वीं शता. तिष्ठेचत्र क्षणंस्थिरः । ब्दीके विद्वान् हैं, इस प्रतिमाका स्वरूप प्रार्थयेद्यदि दातातं पं० शाशाधरजीके ही कथनानुसार स्वाभिन्नत्रैव भुंक्ष्वहि । द्विमेव अथवा त्रिभेदरूप दिया है । इतना तदानिजाशनं भुक्त्वा ही नहीं, बल्कि उनके शब्दोका प्रायः पश्चात्तस्यग्रसेदुचौ ॥६६॥ अनुसरण भी किया है। सिर्फ दो एक यस्त्वेकभिक्षो मुंजीत ...यह ग्रंथ जैन सिद्धान्त प्रचारक मंडली देवबन्द द्वारा प्रकाशित हो चुका है।... . गत्वाऽसावनुमुन्यतः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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