Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ [भाग १५ तदलामे विदध्यात्स अन्यः कौपीनसंयुक्तः उपवासमवश्यकम् । ७०॥ ___कुरुते केशलुंचनं । तथा द्वितीयः किन्त्वार्य शौचोपकरणं पिंछं 'नामोत्पाटयेत्कचान् । मुक्त्वान्यग्रंथवर्जितः ।।५४६।। रक्तकौपीनसंग्राही मुनीनामनुमार्गेण धत्ते पिच्छं तपस्विवत् ॥७२॥ चर्यायै सुप्रगच्छति । धर्म सं० अ०८। उपविश्यचरेद् भिक्षां ११-भावसंग्रहमें पं.वामदेव भी, - करपात्रेऽङ्गसंवृतः ।।५४८॥ जिनका अस्तित्व समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी पाया जाता है, इस प्रतिमाधारी- नास्ति त्रिकालयोगोऽस्य के दो भेद करते हैं-एक 'ग्रंथसंयुक्त' प्रतिमाचार्कसम्मुखा । और दूसरा कौपीनधारक' । पहलेके रहस्य ग्रन्थसिद्धान्तलिए आपने एक वस्त्रका विधान किया श्रवणे नाधिकारिता ॥५४९॥ है, परन्तु माशाधरादिककी तरह साथमें कौपीनका नहीं। वह क्षौर कराता है, वीरचर्या न तस्यास्ति गुरुके निकट पढ़ता है और पाँच घरोंके वस्त्रखण्डपरिग्रहात् । भिक्षा-भोजनको ग्रहण करता है। दूसरा . एवमेकादशो गेही केशलोच करता है, कौपीन, शौचोपकरण सोत्कृष्टः प्रभवत्यसौ ॥५५०॥ (कमंडलु) और पिच्छीको छोड़कर उसके यहाँ पंचभिक्षाशनके नियमका जो पास दूसरा कोई परिग्रह नहीं होता, वह ए खास विधान किया गया है, वह वसुनंदी मनियों के अनुमार्गसे चयोको जाता है प्रादिके कथनोसे अधिक और विशिष्ट और बैठकर करपात्रमें आहार करता है। है। इस विधानसे और द्वितीयोत्कृष्ट शेष त्रिकालयोगादिकके निषेधका कथन । श्रावकके लिए जो मुनियों के अनुमार्गसे उसके लिए साधारण है और उसमें वीर- . .. चर्याको जानेका विधान है, उससे ऐसी चर्या (मधुकरी वृत्तिसे भाजन) के न होने न ध्वनि निकलती है कि पं० वामदेवने का कारण आपने खंडवस्त्र (कोपीन) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके एक-भिक्षा नियम का परिग्रह बतलाया है; यथा और अनेक भिक्षा नियम नामके दो भेद नोद्दिष्टां...(चरेद्) भिक्षा नहीं किय; बल्कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावकको मुद्दिष्टविरतो गृही। अनेक-भिक्षा-नियममें और द्वितीयोत्कृष्ट वैधैको ग्रंथसंयुक्त श्रावकको एक-मिक्षा-नियममें रक्खा है। स्त्वन्यः कौपीनधारकः ॥५४५॥ साथ ही, इस प्रतिमाधारीको रहस्य और आद्यो विदधते क्षौरं सिद्धन्तग्रंथों के अध्ययनका अनधिकारी .. प्रावृणोत्येकवाससं। न बतलाकर उनके सुनने (तक) का पंचभिक्षाशनं भुक्ते अनधिकारी बतलाया है, यह विशिष्टता है। पठते गुरुसन्निधौ ॥५४६॥ १२-ब्रह्मनेमिदत्त, जिन्होंने वि० • यह हस्तलिखित ग्रंथ देहलीके नये मंदिरमें मौजूद है। सं० १५०५ में भीपालचरित्रकी रचना की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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