Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 53
________________ अङ्क 8-१.] ऐलक-पद-कल्पना । ३०७. प्रथमादि शब्दोंके साथ, वे दोनों के लिए मानने लगे, तब किसी आचार्य ने, जरूरत 'उत्कृष्ट श्रावक' और 'उद्दिष्टपिंड विरत' समझकर, इस प्रतिमाको दो भागों में नामोका ही व्यवहार करते हैं। 'उहिष्ट- विभाजित कर दिया हो और उन्हींके पिंड विरत' नाम आपने इस प्रकरणको कथनानुसार प्राचार्य वसुनन्दीजीका निम्नलिखित अन्तिम गाथामें दिया है, यह संब कथन हो । परन्तु कुछ भी हो, और उससे यह ध्वनि निकलती है कि इसमें संदेह नहीं कि उक्त पूर्वाचार्यों के आपको इस प्रतिमाधारीके लिए उद्दिष्ट कथनमें भेद जरूर है और दोनोंका कथन उपाधि, उहिष्ट शयन और उद्दिष्ट वस्त्रा- किसी एक सूत्र ग्रंथके अनुसार नहीं हो दिकसे विरक्त होना शायद इष्ट नहीं है। सकता। पिंड (आहार) के लिए नवकोटि-विशुद्ध -तेरहवीं शताब्दीके विद्वान् पं० होनेका भी आपने कोई विधान नहीं आशाधर जीने, अपने सागारधर्मामृतमें, किया । अस्तु, वह गाथा इस प्रकार है- इस प्रतिमाका जो स्वरूपनिर्देश किया उहिट्ठपिंडविरओ है, वह प्रायः वसुनन्दी प्राचार्यके कथनसे दुवियप्पो सावओ समासेण ।। मिलता जुलता है। हाँ, इतना विशेष ज़रूर है कि आशाधर जीनेएयार सम्मिठाणे ___ (क) उद्दिष्ट पिंडके साथ 'अपि' शब्द भणिओ सुत्तण्णुसारेण ॥३१३॥ लगाकर उपधिशयनासनादिके भी त्यागइस गाथामें ऊपरका सब कथन सूत्रा- का संग्रह किया है, जिसे वसुनन्दी नुसार कहा गया है, ऐसा सूचित किया जी छोड़ गये थे, और स्वोपक्ष टीकामें है। परन्तु कौन से सूत्रग्रंथके अनुसार उसका स्पष्टीकरण भी कर दिया है। . यह सब कथन है, ऐसा कुछ मालूम नहीं (ख) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके लिए होता; क्योंकि वसुनन्दीसे पहले के आचार्यो. कौपीन और उत्तरीय वस्त्र ऐसे दो पटोका इस विषयका जो कथन है, वह का विधान किया है और उनका रंग इस लेखमें ऊपर दिखलाया गया है। सफेद दिया है, जब कि वसुनन्दि प्राचार्यउसमें और इस कथन में बहुत कुछ अन्तर ने उसके लिए एक वस्त्रका ही विधान है। यहाँ उल प्राचारणको दो भेदों के किया था और उसका कोई रंग नियत शिकंजे में जकड़कर निश्चित रूप दिया नहीं किया था। गया है जिसे किसी किसी आचार्यने (ग) 'वा मौनेन दर्शयित्वांगं' शब्दोंके विकल्प रूपसे कथन किया था,और उसका द्वारा विकल्पसे मौनपूर्वक स्वशरीर अनुष्ठान (संभवतःअभ्यासादिकी दृष्टिसे) दिखलाकर भिक्षा लेनेका भी विधान किया इस प्रतिमाधारीकी इच्छा पर छोड़ा था। है, और इस तरह पर श्रीकुंदकुंदाचार्य संभव है कि प्राचार्यों के पारस्परिक मत- और स्वामिकार्तिकेयके कथनोंका लमुख्य भेदका सामंजस्य स्थापित करनेके लिए किया है जिसे वसुनन्दी यथेष्ट रूपमें नहीं यह सब चेष्टा की गई हो; और यह भी कर पाये थे। संभव है कि जब वैकल्पिक (Optional) (घ) प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके दो भेद किये माचरण सढ़ हो गये और अधिक हैं-१ एक-भिक्षा नियम और २ अनेकसंख्यामें क्षुल्लक लोग उनका जुदा जुदा भिक्षा नियम । एक घर संबंधिनी भिक्षाका अनुशान करके अपनेको बड़ा छोटा जिसका नियम है, वह एकभिक्षामियम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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