Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 51
________________ अङ्क ६-१० ऐलक-पद-कल्पना। समुच्चय' नामका एक प्राचीन ग्रंथ है, 'ऐलक' नामकी जो जुदा कल्पना की जाती जिसपर श्रीनंदिगुरुने एक संस्कृत टीकाभी है, वह पीछेकी कल्पना ज़रूर है। कितने लिखी है और इसलिए जो विक्रमकी पीछेकी, यह आगे चलकर मालूम ११ वीं शताब्दीसे पहलेका बना हुआ है। होगा। यहाँ पर इतना और बतला देना इस ग्रंथकी चूलिकाम,श्रावक प्रायश्चित्तका - ज़रूरी है कि श्रीगुरुदासाचार्य के मता. वर्णन करते हुए, उत्कृष्ट श्रावकके लिए नुसार तुल्लक या तो एक वस्त्रका धारक (११ वी प्रतिमाधारीके वास्ते) 'क्षुल्लक' होता है और या कौपीन मात्र रखता है। शब्दका ही प्रयोग किया गया है, 'ऐलक' परन्तु वस्त्रसहित कोपीन अर्थात् दोनों का नहीं; और उसके स्वरूपका कुछ चीज़ नहीं रख सकता । और यह बात निदर्शन भी इस प्रकारसे किया है- अमितगतिके कथनके विरुद्ध पड़ती है। वे वस्त्रसहित कौपीन का भी विधान करते हैं; क्षुल्लेकेष्वेककं वस्त्रं और कौपीन रहित खाली एक वस्त्रका तो नान्यस्थितिभोजनं । विधान ही नहीं करते। इसी तरह लौंच भातापनादियोगोऽपि करने और करभोजी होने का कथन भी तेषां शस्वनिषिध्यते ॥१५५।। उनके कथनके साथ सामंजस्य नहीं क्षौरं कुर्याञ्चलोचं वा रखता। पाणौभुक्तेऽथ भाजने । ___ यहाँ तकके इस संपूर्ण कथनसे इस कोपनिमात्रतन्त्रोऽसौ बात का पता चलता है कि उत्कृष्ट श्रावक, क्षुल्लकः परिकीर्तितः ।।१५६॥ खंडवस्त्रधारी, एक वस्त्रधारी, कौपीन मात्रधारी, उद्दिष्टाहार विरत, उहिष्टअर्थात-क्षुल्लकों के लिए एक वस्त्रका ही विनिवृत्त और त्यक्तोद्दिष्ट, इन सबका विधान है दूसरेका नहीं । खड़े होकर प्राशय एक क्षुल्लकसे ही है-क्षुल्लक पदके भोजन करनेका भी विधान नहीं है और ही ये लश नामान्तर है । यह दूसरी बात आतापनादि योगका अनुष्ठान उनके है कि इस पदकी कुछ क्रियाओं में प्राचालिए सदा निषिद्ध है। वे क्षौर कराओ यों में परस्पर मतभेद पाया जाता है; परन्तु ( हजामत बनवानो ) या लौंच करो, उन सबका अभिप्राय इसी एक पदके हाथमें भोजन करो या बर्तन (पात्र में निदर्शन करनेका जान पड़ता है। साथ ही और चाहे कौपीन मात्र रक्खो, उन्हें यह भी मालूम होता है कि कुछ वैकल्पिक 'क्षुल्लक कहते हैं। (Optional ) आचरणोंकी वजहसे यहाँ यह बात बहुत स्पष्ट शब्दों में उस समय तक इस पदके (प्रतिमाके) बतलाई गई है कि उस उत्कृष्ट श्रावकको भी दो भेद नहीं हो गये थे। परन्तु अब 'क्षुल्लक ही कहते हैं जो १ लौच करता है, आगेके उल्लेखोसे पाठकोंको यह मालूम २ करभोजी है और ३ कौपीन मात्र होगा कि बादको अथवा कुछ पहले किसी रखता है। उसके लिए क्षौर करानेवाले, अज्ञातनामा आचार्य के द्वारा इस प्रतिमापात्रभोजी और एक वस्त्र धारक उत्कृष्ट के साफ तौरसे दो भेद कर दिये गये हैं धावकसे भिन्न किसी दूसरे नामकी कोई और उन भेदों में उक्त वैकल्पिक आचर. जुदा कल्पना नहीं है। और इसलिए णोंको बाँटा गया है। भाजकज प्रायः इन्हीं तीन गुणों के कारण ----विक्रमको बारहवीं शताब्दीके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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