Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 48
________________ जैनहितैषी। [भाग १५ नामकी क्रियाओंमें 'गृहत्याग' क्रियाके . आदिपुराणके इस कथनसे यह ध्वनि बाद और 'जिनरूपता' क्रियासे पहले निकलती है कि ११वी प्रतिमाके प्राचरण'दीक्षाध' नामकी जो क्रिया वर्णन की है, का अनुष्ठान करनेवालेको उस समयउसका अभिप्राय ११ वी प्रतिमाके आच- हवीं शताब्दीमें-'एकशाटकधारी' या एक रणसे ही जान पड़ता है। उसमें भी घर वस्त्रधारी भी कहते थे--वह इस नामसे छोडनेके बाद तपोवनको जाना लिखा संलक्षित होता था। स्वामी समन्तहै और ऐसे तपस्वीके लिए एक शाटक भद्रने उसे ही 'चेलखण्डधारी' लिखा है। (वस्त्र) धारी होनेका विधान किया है। ४-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें ११वी भिक्षा भोजनादिकका शेष कथन उसके प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकारसे पाया स्वरूपसे ही आ जाता है, यथा- जाता है-- त्यक्तागारस्य सद्दृष्टेः प्रशांतस्य गृहीशिनः। जो णवकोडि विसुद्ध प्राग्दीक्षो पयिकाकालादेकशाटकधारिणः ।। भिक्खायरणेण भुंजदे भोजं । . यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते। जायणरहियं जोगं दीक्षाद्यं नाम तज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः।। उहिहाहार विरओसो ॥३९०॥ -पर्व ३८ श्लो० १५८,१५९ अर्थात्-जो श्रावक नवकोटि विशुद्ध त्यक्तागारस्य तस्यांतस्तपोवनमुपेयुषः । (मन-वचन-काय और कृतकारित-मनुएकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षाद्यभिष्यते ॥ मोदनाके दोषसे रहित ऐसे शुद्ध) और - पर्व ३९ श्लो० ७७ योग्य माहारको बिना किसी याचनाके इसके सिवाय, आदिपुराणमें, उन भिक्षा द्वारा प्रहण करता है, वह 'उद्दिष्टाविद्याशिल्पोपजीवी मनुष्योंके लिए, जो हार विरत' नामका श्रावक है। मदीक्षार्ह (मुनिदीक्षाके अयोग्य) कुलमें यहाँ भिक्षाभोजनके तीन खास विशेउत्पन्न हुए हैं, उपनीति आदि संस्कारो- षिण दिये गये हैं-१ नवकोटि विशुद्ध, का निषेध करते हुए, जिस उचित लिंग- २ याचनारहित और ३ योग्य-जो का विधाम किया है वह 'एकशाटक- समन्तभद्र प्रतिपादित स्वरूप में नहीं पाये धारी' होना है, और उसका संकेत ११ जाते । यद्यपि 'योग्य' विशेषणका वहाँ वी प्रतिमाके आचरणकी तरफ ही पाया ---- जाता है, यथा * ब्र० शीतलप्रसादने अपने गृहस्थधर्म' में स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीकाका, जो कि शुभचन्द्र भ० द्वारा अदीक्षाहे कुले जाता वि० सं० १६१३ में बनकर समाप्त हुई है, एक अंश . विद्याशिल्पोपजीविनः । उद्धृत किया है और वह अंश इसी गाथाके टीका-रूपसे एतेषामुनीत्यादि है। उसके अन्त में दो पद्य निम्न प्रकारसे दिये हैं-"एका. संस्कारो नाभिसम्मतः ।। दशके स्थानेद्युत्कृष्टः श्रावको भवेद्विविधः । वस्त्रैकधरः प्रथमः कौपीन परिग्रहोऽन्यस्तु ॥ कौपीनोऽसौरात्रि प्रतिमातेषां स्यादुचितं लिंग योगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छ धृत्वा भुक्त युपविश्य स्वयोग्यव्रतधारिणां । पाणिपुटे॥ एकशाटकधारित्वं इन पद्यों में जो कथन किया गया है, वह मूल गाथाके कथनसे अतिरिक्त है और उसे टीकाकारने दूसरे विद्वानोंके संन्यासमरणावधि ॥ कथनानुसार लिखा है, ऐसा समझना चाहिए । इसी तरह पर टीकामें कुछ और भी विशेष पाया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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