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किसीका एक कौड़ीका क़र्ज़ ही है । और इस दोष से मुक्त हुए बिना न्यायतः उनपर संस्थाका सारा उत्तरदायित्व कभी नहीं रक्खा जा सकता ।
हमारे ऊपर सबसे बड़ा आक्षेप यह किया गया है कि हम लोग (मैं और भाई छगनमलजी बाकलीवाल) पं० गजाधरलाल और श्रीलालजी से जलते हैं और जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाके अशुभ चिन्तक हैं ! परन्तु यह बिलकुल झूठ है । हम लोग उक्त पण्डितोंसे भी अधिक इस संस्थाके शुभचिन्तक हैं और हमारी उस शुभचिन्तकता का ही यह फल है कि वे हमें अपना विरोधी और जलनेवाला समझ बैठे हैं ।
जैनहितैषी ।
संस्थाके जन्मदाता पं० पन्नालालजी वाकलीवालके साथ हमारा शुरू से ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और वे संस्थाके सम्बन्धमें हमसे बराबर सम्मति लेते रहे हैं । हमने उन्हें सदा संस्थाकी भलाई की सम्मति दी है और हमारा विश्वास है कि यदि उसके अनुसार काम होता तो संस्थाकी दशा वर्त्तमान दशासे कई गुनी अच्छी होती और उसके द्वारा जैनसाहित्यका प्रकाशन भी अधिक होता । यद्यपि गुरुजी (पं० पन्नालालजी) के काम करने का ढंग हमें कभी पसन्द नहीं श्राया और हम प्रायः ही उसका विरोध करते रहे हैं--यहाँ तक कि उनसे लड़ते भी रहे हैं; परन्तु वह विरोध भी संस्था और गुरुजीकी शुभचिन्तन के कारण ही हम लोग करते रहे हैं और इसकी साक्षी हमारी वे सब चिट्ठियाँ देंगी जो उनके संग्रह हैं ।
गुरुजीको हम सदा पूज्य दृष्टिसे देखते रहे हैं परन्तु उनके साथ हमारा मतैक्य बहुत ही कम हुआ है । यहाँतक कि इसके कारण वे कभी कभी हमसे
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[ भाग १५
रुष्टतक हो गये हैं । फिर भी, जहाँतक हम जानते हैं, उन्होंने हम लोगोंको अपना यो संस्थाका अशुभचिन्तक कभी नहीं समझा । और हमें अब भी विश्वास है कि गुरुजी हमें ऐसा नहीं समझते; और इसलिए हम उन्हें ही इस मामलेमें साक्षीस्वरूप पेश करते हैं । यदि वे हमें ऐसा समझते तो उन्हें हमारी सम्मतियोंकी अपेक्षा कभी न रहती ।
हमने जैनहितैषी में जैनसि०प्र० संस्था और सनातन जैनग्रन्थमालाके लिए कई बार अपने ग्राहकोंसे अपील की है । इसके विरुद्ध जबतक यह न बतला दिया जाय कि हमने संस्थाको हानि पहुँचानेके लिए कभी कुछ लिखा है, तबतक हम उसके अशुभचिन्तक नहीं ठहर सकते ।
पण्डित महाशयों को शायद यह स्मरण नहीं है कि संस्थाको भाषा टीका सहित ग्रन्थ प्रकाशित करने और उन्हें लागत के मूल्यपर बेचनेकी सम्मति हम लोगोंने ही दी थी और यह उस समय दी थी जब संस्थाको आर्थिक कष्ट हो रहा था और संस्कृत ग्रन्थोंके न बिकनेकी शिका यत थी ।
गोम्मटसार (बड़ी टीका) के छपानेका हमने विरोध किया था, परन्तु इसके दो कारण थे । एक तो यह कि रायचन्द्रशास्त्रमालामें इसकी संक्षिप्त टीकायें छप चुकी थीं, इस कारण हमारा खयाल था कि यह कम बिकेगा और इससे संस्था को हानि होगी । दूसरे हमारी यह इच्छा रहती है कि एक प्रचलित और परिचित ग्रन्थकी अपेक्षा ऐसी संस्थाओंके द्वारा अपरिचित और दुर्लभ प्रन्थोंका ही उद्धार होना चाहिए । ऐसी दशामें भी यदि हम संस्थाके विरोधी करार दिये जायँ, तो फिर लाचारी है।
अपने स्वार्थ की दृष्टिसे भी हम संस्था
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