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[भाग १५
उनकी प्रकृति ही ऐसी है; और इसी वादसे कई गुना अच्छा होता। यह हो प्रकृतिका ज्ञान होने के कारण हम लोगों. सकता है कि मैं पं. गजाधरलालजीके ने उन्हें रोका था कि आप इस झंझटमें प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण अनुवादकी खूबियोंमत पड़िये । इस बात की साक्षी पण्डित को समझने की योग्यता न रखता होऊँ; गजाधरलालजी भी अपने लेख में देते हैं। परन्तु इससे मैं संस्थाका या पण्डितवे लिखते हैं:-"प्रेमीजीने कहा कि जीका अशुभचिन्तक तो कदापि सिद्ध बाकलीवालजी काम खोजना जानते हैं नहीं हो सकता। पर काम करना चलाना ?) नहीं जानते। हमें इस बातका बड़ा दुःख है कि उन्होंने इस तरह रुपया एकट्ठा करके हम लोगोने गुरुजीको जो जो सम्मतियाँ ठीक नहीं किया। उनसे वह कभी न दीं, प्रायः उन सभीसे पं० गजाधरलालसँभलेगा । किसीका रुपया फँसाकर जीका हृदय जर्जरित होता गया, उन्हें उसका हिसाब न रखनेसे बड़ा फजीता घोर कष्ट होता रहा और इसपर भी वे होता है।" बेशक मैंने यही कहा होगा अबतक चुप बने रहे ! यदि गुरुजी महा
और गुरुजीके सद्भावों और सदुद्देश्योपर राज हमें यह लिखनेकी कृपा कर देते कि सब तरह श्रद्धा रखते हुए भी मेरा अब तुम्हारी सम्मतियोंसे इतने महान् दुःखकी तक उनपर यही आक्षेप है कि वे अपनी सृष्टि हो रही है, इसलिए तुम ऐसी जिम्मेदारीका बहुत ही कम खयाल रखते सम्मतियाँ मत दिया करो, अथवा वे हैं और यह बात मैं उनके समक्ष भी कई स्वयं ही हमसे सम्मति माँगना छोड़ देते बार कह चुका हूँ। अब पाठक समझ गये तो आज यह नौषत न आती। कमसे कम होंगे कि हम लोगोंने शेअर निकालनेका इस समय जब कि पण्डितोंका चित्त विरोध किस अभिप्रायले किया था। सट्टेकी बदनामी और कर्जसे उत्तप्त हो
दौरेपर विद्यार्थियोंके ले जाने के भी रहा है, उन्हें हम लोगोंके ये 'कारनामे' हम विरोधी थे। क्योंकि हमें सन्देह था लिखनेका तो कष्ट न उठाना पड़ता। और कि यदि काफी चन्दा न हुआ तो यह हम लोग भी इन काँटोंमें घसीटे जाकर व्यर्थका खर्च सिरपर पड़ेगा और गुरुजी व्यर्थ ही क्षत-विक्षत न किये जाते।
और भी अधिक आर्थिक संकट में फँस हम लोगोंने गुरुजीको यह भी अनेक जायँगे । इससे तो यही अच्छा है कि बे बार लिखा है कि संस्थाके ग्रन्थ बहुत ही जो काम कर रहे हैं वही करते रहें। उसमें अशुद्ध छप रहे हैं और हम समझते हैं कमसे कम कोई बड़ी जिम्मेदारी तो कि ऐसा लिखकर हमने कोई पाप नहीं उनके सिर नहीं है।
किया। न्यायतीर्थ पं.वंशीधरजी शाहली. यह बहुत ही बदिया और निष्पक्ष का कथन है कि राजवार्तिकका कोई न्याय है कि यदि मैंने गुरुजीको यह पृष्ठ ऐसा नहीं है जिसमें दस बीस अशुसम्मति दी कि श्राप हरिवंश पुराणका द्धियाँ न हो और वे अशुद्धियाँ ऐसी नहीं अनुवाद पं० गजाधरलालजीसे न कराकर हैं जो अन्य प्रतियोंकी अप्राप्तिके कारण सुकवि और सुलेखक पं० गिरधर शर्मासे रह गई हो, वे केवल प्रज्ञान और प्रमादकराइये, तो मैं उनका शत्रु हो गया । मेरा के कारण हुई हैं। इसके प्रमाणस्वरूप उक्त सा अब भी यह विश्वास है कि यदि पण्डितजीने राजवार्तिकके कई पत्र शुद्ध शमाजी अनुवाद करते तो वह इस अनु. करके दिखलाये थे, जो इस समय भी
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