Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 35
________________ २४ अङ्क -१०] स्वदेशी वर्दी। सामने पेश करते हैं जिसमें उन्होंने जैन- कण्टक न बनेंगे, इस बातको आप नोट सिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्थाके सर्वस्व उक्त कर रक्स। पण्डितोंके दोषोंको सारी शक्ति लगाकर नाथूराम प्रेमी। छिपाया है और उनके विरोधियोंको जैनधर्मका विरोधी बतलाकर टाल दिया है। उसमें एक जगह श्राप कहते हैं--- स्वदेशी वर्दी। "हमने विश्वास्त (?) सज्जनसे सुना है कि माणिकचन्दजी बैनाड़ाके भाई पन्नालाल- महात्मा गान्धीने खद्दरकी पोशाकको जीने संस्थाके पण्डितोंको सट्टा खेलनेके स्वराज्यसैनिककी वर्दी कहा है और लिए उकसाया, सट्टा खेलने की तरकीब स्वदेशी पोशाकके तीन भेद माने हैं:- . सुझाई, एक एक घंटा हर रोज व्याख्यान (१) हाथके सूतसे हाथके ही करघे दे देकर पण्डितोंको सट्टा खेलने के लिए पर चुना हुश्रा कपड़ा, यह प्रथम श्रेणी लालायित कर दिया और आखिर है । परन्तु ऐसे कपड़ेकी जितनी माँग है पण्डितोंने सट्टा खेल डाला।" यह सब उतना कपड़ा अभी तैयार नहीं है, इस. स्वीकार करके भी सोनीजीकी आशा है लिएकि रामलालजीका और बैनाडाजीका (२) हाथके सूतसे देशी मिल में बना लेख पण्डितोकी निर्मल कीर्तिको समल कपड़ा, यह द्वितीय श्रेणी है; पर यह भी करने के लिए लिखा गया है, इसलिए जहाँ असम्भव हो वहाँके लियेजैन समाजको ऐसे लेखोकी ओर दृष्टि न (३) देशी मिलके सूतसे देशी मिलमें देकर अपने धर्मकी जी-जानसे रक्षा करने ही तैयार हुए कपड़ेकी व्यवस्था है । यह वाले साधर्मी पण्डितोंसे मुँह न मोडना तृतीय श्रेणी है। चाहिए! इन तीन श्रेणियों से किसी एक ‘श्रेणी में भी जो मनुष्य न हो, उसे पतित . हम भी सोनीजीके स्वर में स्वर मिला. समझना चाहिए और उसका उद्धार कर कहते हैं कि जै. सि०प्र० संस्थाके करने की चेष्टा करनी चाहिए। • संरक्षकों, सहायकों और मेम्बरोंको - अब हमें एक बात और बतलानी है। चाहिए कि वे संस्थाका बैनामा लिखकर वह यह कि कोई किसी दर्जेकी वर्दी साधर्मी पण्डितोके नाम रजिस्टरी करा पहने, उसके सिरपर खहरकी ही टोपी दें और अपने सच्चे धर्मवात्सल्यका परि- या पगड़ी रहनी चाहिए, मिलके कपड़ेकी चय दें। इसमें किसीको कोई आपत्ति नहीं नहीं। खद्दर न मिल सकनेके कारण हो सकती। हम लोगोंने अबतक संस्था- आप देशी मिलकी धोती या कुरता भले की जो शुभचिन्तना या अशुभचिन्तना ही पहनिये, पर खहरका आदर करनेके की, उसका प्रसाद हमें काफी मिल चुका। लिए कहिये या स्वराज्य सैनिककी अब और प्राप्त करनेकी हमें इच्छा नहीं पोशाकमें यूनिफार्म बना रखने की व्यवरही । पण्डित महाशयोंसे भी हमारी स्थाके लिए कहिये, माथेपर खहरकी ही सविनय प्रार्थना है कि आप अपने क्रोध- टोपी या पगड़ी रहे। का संरक्षण करके हम लोगोंको क्षमा सब लोग यदि खद्दरकी ही टोपी कर दें। आगे दग भापके मार्ग में कभी दिया करें नो स्वराज्य के सैनिकोको पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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