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प्रक-१०] जैनधर्मका अहिंसा तत्व।
२६५ मात्माके उद्धारका इच्छुक है, उसे तो. प्रचारक नृपति मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त यह जैन अहिंसा कभी भी अव्यवहार्य या और अशोक थे। क्या उनके समयमें भारत आत्मनाशक नहीं मालूम देगी-स्वार्थ- पराधीन हुआ था ? अहिंसा धर्मके कट्टर लोलुप और सुखैषी जीवोंकी वात अनुयायी दक्षिणके कदम्ब, पल्लव और अलग है।
चालुक्य वंशोंके प्रसिद्ध प्रसिद्ध महाराजा _ जैन धर्मको अहिंसा पर दूसरा और थे। क्या उनके राजत्वकाल में किसी पर.. बड़ा भाक्षेप यह किया जाता है कि इस चक्रने आकर भारतको सताया था ? अहिंसाके प्रचारने भारतको पराधीन अहिंसा तत्वका अनुगामी चक्रवर्ती और प्रजाको निर्वीर्य बना दिया है। सम्राट् श्रीहर्ष था। क्या उसके समय में
आक्षेपके करनेवालोंका मत है कि भारतको किलीने पददलित किया था? अहिंसाके प्रचारसे लोगों में शौर्य नहीं अहिंसा मतका पालन करनेवाला दक्षिणरहा । क्योंकि अहिंसा-जन्य पापसे डर- का राष्ट्रकूट वंशीय नृपति अमोघवर्ष कर लोगोंने मांस-भक्षण छोड़ दिया, और गुजरातका चालुक्य वंशीय प्रजा. और बिना मांस भक्षणके शरीरमें बल पति कुमारपाल था। क्या उनकी अहिंसोऔर मनमें शौर्य नहीं पैदा होता । इस- पासनासे देशकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई थी? लिए प्रजाके दिलमेंसे युद्धकी भावना इतिहास तो लाक्षी दे रहा है कि भारत नष्ट हो गई और उसके कारण विदेशी इन राजाओंके राजत्व कालमें अभ्युदयके
और विधर्मी लोगोंने भारत पर आक्रमण शिखर पर पहुँचा था। जबतक भारतकर उसे अपने अधीन बना लिया। इस में बौद्ध और जैन धर्मका जोर था और प्रकार अहिंसाके प्रचारसे देश पराधीन जबतक ये धर्म राष्ट्रीय धर्म कहलाते थे, और प्रजा पराक्रम-शून्य हो गई। तब तक भारतमें स्वतन्त्रता, शान्ति, ___ अहिंसाके बारेमें की गई यह कल्पना सम्पत्ति इत्यादि पूर्ण रूपसे विराजती नितान्त युक्तिशून्य और सत्यसे पराङ्: थी। अहिंसाके इन परम उपासक नृप. मुख है । इस कल्पनाके मूलमें बड़ी भारी तियोंने अनेक युद्ध किये, अनेक शत्रुत्रीभज्ञानता और अनुभवशून्यता भरी हुई को पराजित किया और अनेक दुष्ट जनोंहै। जो यह विचार प्रदर्शित करते हैं को दण्डित किया। इनकी अहिंसोपासनाउनको न तो भारतके प्राचीन इतिहासका ने न देशको पराधीन बनाया और न पता होना चाहिए और न जगत्के मानव प्रजाको निर्वीर्य बनाया। जिनको गुजसमाजकी परिस्थितिका ज्ञान होना रात और राजपूतानेका थोड़ा बहुत भी चाहिए । भारतकी पराधीनताका कारण वास्तविक ज्ञान है, वे जान सकते हैं कि अहिंसा नहीं हैं. परन्त अकर्मण्यता, प्रज्ञा- देशोंको स्वतन्त्र, समन्नत और सुरक्षित नता और असहिष्णुता है। और इन रखने के लिए जैनोंने कैसे कैसे पराक्रम सबका मूल हिंसा है । भारतका पुरा. किये थे। जिस समय गुजरातका राज्यतन इतिहास प्रकट रूपसे बतला रहा है कार्यभार जैनोंके अधीन था-महामात्य, कि जबतक भारतमें अहिंसा-प्रधान धर्मोंः मन्त्री, सेनापति, कोषाध्यक्ष आदि बड़े का अभ्युदय रहा, तबतक प्रजामें शान्ति, बड़े अधिकारपद जैनोंके अधीन थे-उस शौर्य, सुख और सन्तोष यथेष्ट व्यास थे। समय गुजरातका ऐश्वर्य उन्नतिकी चरम अहिंसा धर्मके महान् उपासक और सीमा पर चढ़ा हुआ था। गुजरातके
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