Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 25
________________ अङ्क ६-१० ] की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है । अफसोस है, इन कुरीतियोंने ही कुछ लोगोंको विधवा-विवाह जैसी नीच प्रथाकी चर्चा करने के लिये तय्यार कर दिया है। मेरी राय में बेहतर तो यह होता कि ये लोग विधवा-विवाहका श्रान्दोलन करनेके स्थानमें इन कुरीतियों को निर्मूल करने की कोशिश करते । लेकिन इससे ज्यादा अफसोस मुझे उन दूसरे लोगों पर है कि जो इन विधवा-विवाहका चर्चा करनेवालोंको गालियाँ वगैरह तो देते हैं, परन्तु इन कुरीतियोंके दूर करनेकी कोशिश नहीं करते - धड़ाधड़ वृद्ध, विवाह बहुविवाह, कन्या- विक्रय वगैरह मालदार लोगोंकी विषयवासना और स्वार्थसिद्धि के लिये किये जाते हैं; और ये दूसरी किस्म के लोप उपेक्षा धारण करने के अतिरिक्त किसी किसी अवसर पर तो इनमें से कुछ कुरीतियों को निर्दोष भी बतलाने लगते हैं ! भाइयों ! यदि आप विधवा विवाह को रोकना चाहते हैं तो वे बातें जिनकी वजह से इस हानिकारक प्रथाकी श्रोर लोगोंका ख्याल जाता है, दूर कीजिये । केवल इस प्रथाकी चर्चा करनेवालोंको गालियाँ देने से या उनको किसी किस्मकी संजा देनेसे काम नहीं चलेगा। ऐसा करनेसे तो इस नीच प्रथा प्रचार में और ज्यादा मजबूती होगी । यह बात वस्तु-स्वभाव के विरुद्ध है कि यदि कोई नई कुप्रथा कुछ कारणोंसे जारी होती हुई नजर आती हो तो वह बिना उन कारणोंको दूर किये केवल उसके आन्दोलन करनेवालोंको गालियाँ और सजा देने वगैरह से रुक जाय । बाबू ऋषभदासजी के विचार । ऊपरकी पंक्तियोंमें मैंने जैनधर्म के सिर्फ दो सिद्धान्तों— अनेकान्त और 'अहिंसा' का जिकर किया है । इनके Jain Education International २७६ अतिरिक्त जैनधर्ममें और बहुतले अमूल्य और महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जैसे कि कर्मसिद्धान्त, आत्म-स्वरूप, परमात्मस्वरूप, भेद- विज्ञान, श्रात्मिक स्वतंत्रता, वीतरा गता वगैरह कि जिनसे जैनधर्म अंति श्रेष्ठ और उत्तम साबित होता है; और यह खयाल पैदा होता है कि इस धर्म के माननेवालोंकी शारीरिक, मानसिक, नैतिक और धार्मिक गरज हर तरह की हालत बहुत अच्छी होनी चाहिए। लेकिन देखने पर इसके विरुद्ध नजर आता है । जैन समाजकी दशा हर तरह से ि द्दीन नज़र श्राती है। इसकी वजह क्या है ? इसकी वजह गौर करने से यह मालूम होती हैं कि इस ज़माने में जैनसमाज जैनधर्मका पालन उसके असली स्वरूप और आभ्यन्तर रहस्यके अनुसार नहीं कर रहा है । यद्यपि ऊपरी (बाह्य) क्रियाओं जैसे कि हरी वगैरहके त्यागका पालन अब भी कर रहा है, परन्तु वह बिना उसके प्रयोजन और श्रभिप्रायको समझे केवल रूढ़िके तौर पर कर रहा है; और उससे अधिक मुख्य, ज़रूरी और हितकर श्रभ्यन्तरिक बातोंसे उपेक्षा धारण किये हुए है। दूसरे, जैनसमाजमें विद्या और एकताकी बहुत कमी है । एकता न होने की वजहसे शिक्षा के काम में बड़ा धक्का पहुँच रहा है। ज़रा ज़रा सी और व्यर्थ के वादविवादमें जैनसमाजकी बातोंपर परस्पर खींचतान हो रही है शक्ति खर्च हो रही है। कोई कहता है कि वर्णव्यवस्था कर्म पर निर्भर है। दूसरा कहता कि तुम वर्णव्यवस्थाको उड़ाना चाहते हो, वर्णव्यवस्था तो बिलकुल जन्मपर निर्भर है । खेद है कि ये दोनों ग़ौर करके इस बातका अनुभव नहीं करते कि यद्यपि शुरू में भगवान् ऋषभदेवने वर्णव्यवस्था For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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