Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ कर और उनके विरोधको मिटाकर उन की अहिंसा अत्यन्त विस्तृत और व्यापक . सबको अनेकान्तके सूत्रमें बाँधता है। है, परन्तु इस कलिकालमें हमारे कुछ जैनी । और अनेकान्तके सूत्र में बाँधना क्या, बल्कि भाइयोंने अपने आचरणसे उसको अत्यपहलेसे ही जो वे अनेकान्तके भीतर न्त परिमित बना दिया है। हमारे कुछ गर्भित हैं, उनके उस गर्भितपनेको प्रगट भोले भाई ऐसे हैं जो सिर्फ बनस्पति करता है। सजनों, अगर आप जैनधर्मके वगैरह एकेंद्रिय जीवोंकी दयाको ही पूरी सच्चे रहस्य पर गौर करेंगे तो जरूर श्राप अहिंसा खयाल करते हैं । यह उनकी गलती यह कहेंगे कि उसमें दसरोंको अधर्मी, है । उनको अपनी सन्तान, अपनी कौम, अश्रद्वानी या मिथ्याती कहने की जगह ही अपने देश और मनुष्य जातिके उपकार नहीं । शायद जिस जमाने में अन्यमत की तरफ भी ध्यान देना चाहिए । परोप कार भी अहिंसाका प्रधान अंग है। जैन घाले यह (इस आशयका ) श्लोक पढ़ा करते थे कि मस्त हाथीके सामने चला धर्मकी अहिंसाको, जो कि अत्यन्त उच्च जाय,लेकिन जैन मंदिर में न जाय, सम्भव कोटिकी अहिंसा है, केवल साग-सब्जी है, उस जमाने में आपका भी उनको वगैरह एकद्रिय जीवोंकी रक्षा पर परिमिथ्याती कहनां कुछ अर्थ रखता हो। मित कर देना जैनसमाजका हास्य कराना परन्तु इस जमाने में जब कि प्रेम और एक है। इस अवसर पर कोई साहब यह ताकी आवाज़ चारों तरफसे सुनाई दे रही खयाल न करें कि मैं एकेंद्रिय जीवोंकी है, आपका अन्य मतवालोको मिथ्याती दयाका निषेध कर रहा हूँ। नहीं नहीं, कहना या दूसरे धर्मों और सिद्धान्तोको एकेंद्रिय जीवोंके साथ भी दया व अहिंसा- , केवल मिथ्यात्व या जैनधर्मसे सर्वथा का बर्ताव हर शख्सको अपनी ताकत विपरीत अर्थात् विरुद्ध बतलाना, सिवाय और हालतके अनुसार जिल कदर हो इसके कि आप उनको मिथ्यात्वमें और सके, जरूर करना चाहिए। लेकिन मेरा दृढ़ करें और अपने अनेकान्त पर संकु- कहना यह है कि एकेद्रिय जीवोंकी दयाचितता और संकीर्णताका धब्बा लगाएँ, को पंचेन्द्रिय जीवोंकी दया पर मुख्यता और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । और नहीं देनी चाहिए। वास्तव में यदि देखा जाय तो इस किस्म- क्या आजकल हमारे जैनी भाई परकी स्प्रिट अर्थात इस प्रकारकी बातें कहना स्पर एक दूसरेसे कलह करके, दूसरोंके और इस किस्मका बर्ताव करना जैनधर्म- साथ अन्यायका बर्ताव करके, तीर्थक्षेत्रोंके अनेकान्त सिद्धान्तसे सर्वथा विरुद्ध के झगड़ोंमें अपना रुपया और ताकत और अनेकान्तवादको एकान्तवाद बर्बाद करके भाव-हिंसा नहीं कर रहे हैं ? बनाना है। जरूर कर रहे हैं। क्या आजकल जैनइसके बाद आपने जैनधर्म के दूसरे समाज बाल-विवाह, वृद्ध विवाह, अन'अहिंसा' सिद्धान्तका महत्व और स्व. मेल विवाह, बहु-विवाह, कन्या-विक्रय, वगैरह कुरीतियाँ करके अपनी सन्तान, रूप बतलाते हुए उसके अन्तमें कहा है अपनी जातिके साथ घोर हिंसा नहीं कर "यहाँ पर मजबूर होकर मुझे यह रहा है ? निःसन्देह कर रहा है। अधिकजरूर कहना पड़ता है कि यद्यपि जैनधर्म. तर इन्हीं कुरीतियों की वजहसे जैन जाति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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