Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ २७६ जैनहितैषी। [भाग १५ भी एक न्यायी और सत्यप्रिय हृदय इस जाय, जिससे एक विद्वान्के विचार उन्हें बातको स्वीकार करनेसे कभी नहीं मालूम हो जायँ । अतः हम उर्दू जैनचूकेगा कि अछूतों पर अर्से से बहुत बड़े प्रदीपमें प्रकाशित बाबू साहबके उक्त अन्याय और अत्याचार हो रहे हैं और भाषणसे उनके ऐसे कुछ विचारोंको इसलिये हमें अब उन सबका प्रायश्चित्त ज्योंका त्यों और कहीं कहीं अनुवाद रूपजरूर करना होगा। में यहाँ उद्धृत करते हैं। उनके औचित्य - अन्तमें हम अपने पाठकोंसे इतना और अनौचित्य पर विचार करना स्वयं फिर निवेदन कर देना चाहते हैं कि वे पाठकोंके अधीन है। अपने पूर्व संस्कारोंको दबाकर बड़ी "जैनधर्म उन उसूलों (सिद्धान्तो) शांति और गंभीरताके साथ इस विषय और उन तरीकों (ढंगों) का ही नाम है पर विचार करनेकी कृपा करें और इस कि जिनसे प्रात्माके निज शुद्ध स्वाभापर हर पहलूसे नजर डालें: क्योंकि यह विक गुणोंका विकाश होता है। जैन विषय, इस समय, देशके लिये एक बड़े धर्मके अनुसार केवल शान आदिक ही ही महत्वका विषय बना हुआ है । साथ श्रात्माके शुद्ध स्वाभाविक गुण हैं । अतः ही, यह भी निवेदन है कि वे किसी विचार. वास्तवमें जैनधर्मका उद्देश्य ही आत्माको विभिन्नताके कारण इस लेखके लेखक, परमात्मा बनाना है। इस धर्मके अनेक सम्पादक तथा महात्मा गांधीजी आदिसे ग्रन्थों में प्रात्मस्वरूप, कर्मसिद्धान्त, परकोई व्यक्तिगत द्वेषभाव धारण न करें। मात्मस्वरूप वगैरहका ऐसा स्पष्ट वर्णन यही विचारकोंकी नीति होती है और है कि जो दूसरी जगह नहीं पाया जाता। होनी चाहिए। हम भी इस विषय पर वस्तुतः दुनियाँ में इस धर्मके महान् अभी और गहरा विचार कर रहे हैं। ग्रन्थोंका जुदा जुदा भाषाओं में अनुवाद होकर उसके प्रचारकी जरूरत है।" बाबू ऋषभदासजी वकील . "सबसे बड़ा सिद्धान्त जो जैनधर्म के महत्त्वको प्रकट करता है, वह उसका मेरठके विचार । - 'अनेकान्त' सिस्टम है।" 'हीरालाल जैन हाई स्कूल, पहाड़ी इसके बाद अनेकान्त और एकान्तके धीरज देहलीके वार्षिक अधिवेशन पर, स्वरूपका कुछ वर्णन देकर आपने उसके गत २४ अप्रैल सन् १९२१ को, श्रीयुत सम्बन्धमें अपने विचार इस प्रकार बाबू ऋषभदासजी बी. ए. वकोल प्रकट किये हैंमेरठने, सभापतिको हैसियतसे जो भाषण 'ये सब एकान्तवाद भी असली दिया है, उसमें बालक और बालिकाओकी सिवान्तोंके लिहाज़ (अपेक्षा) से तो शिक्षाके सम्बन्धमें कितनी ही काम की जरूर सच हैं, लेकिन जिस तरीके (ढंग) बातें कहनेके बाद, जैनधर्म और जैन- से उन्होंने उन सिद्धान्तोंको माना है, उस समाजके सम्बन्धमें भी अपने कुछ तरीकेके लिहाजसे वे गलत हैं। उदाविचारोको खास तौरसे प्रकट किया है। हरणके तौरपर यह कहना कि हम चाहते हैं कि जैन हितैषीके पाठकों को अनित्य है। गलत नहीं है। हाँ, बिना । भी उन विचारोंका परिचय कराया पर्यायकी अपेक्षाके वस्तुको अनित्य ही! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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