Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 05 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ अङ्क 8-१०] अस्पृश्यता निवारक आन्दोलन । २७५ बदला करती है । इसलिये लौकिक धर्म आवश्यकताओंके अनुसार अपनी प्रवृत्ति भी हमेशा एक हालतमें नहीं रहता। वह को बदल लिया है ?* इसी तौर पर वर्त. बराबर परिवर्तनशील होता है, और मान अछूत जातियों या उनमेंसे किसी इसीसे किसी भी लौकिक धर्मको सार्व- जातिके साथ यदि आज भी अस्पश्यतादेशिक और सार्वकालिक नहीं कह का व्यवहार उठा दिया जाय तो र सकते । ऐसी हालत में किसी समय एक लोकरूढ़िका-लोक व्यवहारकाकिसी देशके स्पृश्याऽस्पृश्य सम्बन्धी परिवर्तन हो जानेके सिवाय हमारे किसी लौकिक धर्मको लक्ष्य में रख कर पारमार्थिक धर्मको क्या हानि पहुँचती है? उसके अनुसार यदि किसी ग्रन्थमें कोई और फिर वह हानि उस वक्त क्यों नहीं विधान किया गया हो, तो वह तात्कालिक पहुँचती जब कि उस जातिके व्यक्ति और तद्देशीय विधान है, इतना ही सम. मुसलमान या ईसाई हो जाते हैं और हम झना चाहिए। इससे अधिक उसका यह उनके साथ अस्पृश्यताका व्यवहार नहीं प्राशय लेना ठीक नहीं होगा कि वह सर्व रखते? यह सभीके सोचने और समझनेदेशों और सर्व समयों के लिये, उस देश की बात है। और इससे तो प्रायः किसी और उस समयके लिये भी जहाँ और जब को भी इन्कार नहीं हो सकता कि जिन वह परिस्थिति कायम न रहे, एक अटल अत्याचारोंके लिये हम अपने विषयमें गवसिद्धान्त है। और इसलिये एक लौकिक नमेंटकी शिकायत करते हैं, यदि वे ही धर्म सम्बन्धी वर्तमान आन्दोलनके अत्याचार और बल्कि उनसे भी अधिक विरोधमें ऐसे ग्रन्थोंके अवतरण पेश अत्याचार हम अछुतोंके साथ करते हैं, करनेका कोई नतीजा नहीं हो सकता। तो हमें यह कहने और इस बातका दावा शास्त्रोंमें ऐसी कितनी ही जातियोंका करनेका कोई अधिकार नहीं है कि हमारे उल्लेख है जो उस समय अस्पृश्य (अछूत) ऊपर अत्याचार न किये जायँ, हमें बरा. समझी जाती थीं, परन्तु आज वे अस्पृश्य बरके हक दिये जायँ अथवा हमें स्वानहीं हैं। आज हम उन जातियोंके व्यक्तिणे- धीन कर दिया जाय । हमें पहले अपने को खुशीसे छूते हैं, पास बैठाते हैं और दोषोंका संशोधन करना होगा, तभी हम उनसे अपने तरह तरहके गृह-कार्य कराते दूसरोंके दोषोंका संशोधन करा सकेंगे। हैं। उदाहरणके लिये धीवरोको लीजिये भले ही हमारे पुराने संस्कार और जो हमारे इधर उच्चसे उच्च जातियोंके हमारी स्वार्थ-वासनाएँ हमें इस बातको यहाँ पानी भरते हैं, बर्तन माँजते हैं और स्वीकार करनेसे रोक कि हम अछूतोपर अनेक प्रकारके खाने आदि बनाते हैं। ये कुछ अत्याचार करते हैं; और चाहे हम लोग पहले अस्पृश्य समझे जाते थे और यहाँ तक कहने की धृष्टता भी धारण उस अमय उनसे छू जाने का प्रायश्चित्त भी करें कि अछूतोके साथ जो व्यवहार होता था। परन्तु आज कितने ही प्रदेशोंमें किया जाता है, वह उनके योग्य ही है वह दशा नहीं है, न घे अस्पृश्य समझे और वे उसीके लिए बनाये गये हैं, तो जाते हैं और न उनसे छू जानेका कोई - प्रायश्चित्त किया जाता है। यह सब क्या स्पृश्याऽस्पृश्यके सम्बन्धमें कितने ही उल्लेख शास्त्रों से भी पाये जाते है, जिनमें प्राचार्योमें परस्पर मतहै?क्या यह इस बातको सूचित नहीं भेद है और जो देश-कालको भिन्न भिन्न स्थितियोंके करता कि बादमें लोगोंने देश-कालकी परिवर्तनादिकका ही सूचित करते हैं। Jain Education International • For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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